चश्मा
Specs
(कमजोर नजरों के लिए उपयोगी)
नजर कमजोर होने का हल पहले-पहल चीनियों ने निकाला। उन्होंने चश्मा बनाकर पहनना प्रारम्भ किया; पर यह श्चमा आधुनिक चश्मों जैसा नहीं था। इसमें दो अंडाकार लेंस होते थे। उनका फ्रेम कछुए के खोल से बनाया जाता था। इन्हें रस्सी से बांधा जाता था और रस्सी कान से एक वजनदार चीज के जरिए लटका दी जाती थी। कुछ लोग चश्मे को अपने हैट से ही जोड़ देते थे तो कुछ लोग पीतल की पत्ती जोड़ देते थे। और शीशा सामने रखकर देखते थे।
नजर कमजोर होने या कम दिखाई देने की समस्या लोगों के सामने आदिकाल से चली आ रही है। कहते हैं कि प्रसिद्ध रोमन सम्राट् नीरो, जिसने रोम पर 54 ईसवी से लेकर 68 ईसवी तक शासन किया, नजर कमजोर होने से परेशान रहता
था। तरह-तरह के अटपटे काम करने वाला, अपने घोड़ों को मनुष्य की पोशाक पहनाने वाला, रात को सड़कों पर घूमने, गुनगुगाने, नाचने वाला नीरो जेवरात का बड़ा शौकीन था। हीरे-जवाहरातों को एक आंख से बहुत नजदीक रखकर देख पाता था। लोग उसकी इस आदत पर हंसते थे। उस लगता था कि नजदीक से देखने पर शायद हीरा ज्यादा सुन्दर लगता होगा।
इन चश्मों से नजर कमजोर होने की समस्या का सही समाधान पाता था या नहीं, यह तो पता नहीं, पर अनेक लोगों का मानना था कि चश्मा लगाने से भाग्य चमक जाता है या वे सुन्दर व आकर्षक झगने लगते हैं। कुछ लोग खाली फ्रेम भी पहनने लगे थे।
इसके बाद अरबवासियों ने लेंसों को घिसने और तैयार करने की कला विकसित की। उन्होंने प्रकाश की किरणों को केन्द्रित करके, चीजों को बड़ा करके देखने की कला भी विकसित कर ली।
तेरहवीं तथा चौदहवीं सदी में चश्मों की तकनीक यूरोप पहुंच गई। सन् 1350 में इटलीवासी चश्मा पहनने लगे। उस समय वहां पर पत्थर, क्रिस्टल या किसी पारदर्शक पत्थर से लेंस बनाए जाते थे। उनका उद्देश्य केवल बेहतर देखना था, भाग्य सुधारना नहीं। वे बड़ा आकार देखने की कोशिश करते थे।
पहले कुछ लोग एक शीशे की मदद से बड़ा आकार देखने की कोशिश करते थे। फिर दो शीशों की मदद से बड़ा आकार देखने लगे। दोनों शीशे एक फ्रेम में लगे होते थे, पर आंखों पर पहनने की बजाय वे हाथ में पकड़ते थे और पढ़ते समय या किसी चीज को ध्यान से देखते समय वे उसे आंखों के सामने रखकर देखते थे।
बाद में रिबन या रस्सी के सहारे दोनों लेंसों को सिर पर बांधा जाने लगा। इस प्रकार का चश्मा लोगों को आरामदायक नहीं लगा। इसलिए तरह-तरह के प्रयोग चलते रहे। कुछ ने स्प्रिंग लगाकर सिर में बांधना प्रारम्भ किया तो कुछ ने कपड़े जकड़ने वाली क्लिप के लिए जरिए नाक में लगाने का भी प्रयत्न किया। काफी प्रयत्नों के बाद एक व्यक्ति के दिमाग में आया। कान के पास तार को मोड़ा गया, ताकि कान में फंसा रहे।
पहले पत्थरों के लेंस बनाए जाते रहे। बाद में शीशे को पिघलाकर उचित आकार वाले लेंस बनाए जाने लगे, जिनसे बेहतर दिखाई देता था। यह जानकारी भी खिड़कियों में शीशे लगाने वाले एक व्यक्ति ने संसार को दी।
मजे की बात यह है कि आज डॉक्टर नजर कमजोर होने पर शीघ्र ही चश्मा लगाने की राय देते हैं, पर उस समय वे इसका विरोध करते थे। वे इसे आंखों के लिए खतरनाक बताते थे। नजर में सुधार लाने के लिए। दवा डालने या मलहम आदि लगाने की राय देते थे।
पर लोग डॉक्टरों की राय के विपरीत इन्हें लगाने का प्रयास करते थे। हुसका एक कारण यह भी कि चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी में छपाई की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी और पढ़ने के लिए ‘बाइबल’ व अन्य किताबें लोगों को उपलब्ध होने लगी थीं। तब लोग पढ़ना चाहते थे और उस समय के चश्मे चाहे कितने भी बेढंगे थे, पर पढ़ने में सहायक थे। दवा या मलहम से आंख की रोशनी न तब बढ़ती थी और न आज बढ़ती है।
चश्मों की लोकप्रिया बढ़ती गई। चश्मे यूरोप से अमेरिका पहुंचे। वहां बेंजामिन फ्रेंक्लिन नामक वैज्ञानिक ने पहली बार बाइ फोकल लेंस तैयार किया, जिससे नजदीक की दृष्टि के साथ दूर की दृष्टि में भी सुधार आने लगा। इसके साथ ही चश्मों के विकास की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा। तब जैसी आंखों की दृष्टि होती थी वैसा ही चश्मा बनने लगा।
कुछ लोगों को आंखों पर चश्मा लगाना बुरा लगता था। उन्हें लगता था कि उनका व्यक्तित्व इससे दुष्प्रभावित होता है। उन्हें तब राहत मिली जब जर्मनी में सन् 1877 में कॉण्टेक्ट लेंसों का आविष्कार हुआ। वास्तव मे कॉण्टेक्ट लेंसों का आविष्कार दृष्टि-सुधार के लिए नहीं हुआ था। यह पलकों के रोग से आंख के गोले को बचाने के लिए वैज्ञानिक द्वारा किया गया था। आजकल कॉण्टेक्ट लेंसों का काफी प्रयोग होता है और महिलाओं को यह ज्यादा पसन्द होता है।