डाक टिकट
Dak Ticket
(पत्रों को गन्तव्य स्थान तक पहुंचाने के लिए)
डाक टिकट-अर्थात् वह टिकट, जिसका इस्तेमाल डाक सामग्री में किया जाए। इससे तो आजकल बच्चा-बच्चा सुपरिचित है। इन डाक टिकटों की शुरुआत आज से लगभग तीन सौ पच्चीस वर्ष (सन् 1680 में) इंग्लैंड में हुई थी। विलियम डॉकरा नामक एक अंग्रेज ने तब इंग्लैंड में लंदन और वेस्टमिंस्टर में निजी डाक सेवा प्रारम्भ की। वह पत्रों को उनके गंतव्य (वांछित) स्थान पर पहुंचाने के एवज में शुल्क के तौर पर एक पेनी अग्रिम लेता था और पत्र पर एक मुहर लगा देता था, जिस पर लिखा रहता था-‘पेनी पोस्टपेड’। डाक टिकट के आकार वाली मुहर ‘डॉकर मार्क’ के नाम से प्रसिद्ध थी। वह एक ऐसा डाक टिकट था, जो चिपकाया नहीं जाता। था, बल्कि मुहर द्वारा अंकित कर दिया जाता था।
सम्भवतः इसी को देखकर जेम्स चामर्स नामक एक इंग्लैंडवासी ने सन् 1884 में चिपकाने वाले डाक टिकट बनाकर छापे और फिर उन्हें डाक अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया; परन्तु उन अधिकारियों ने उनमें कोई रुचि नहीं दिखाई। इंग्लैंड के ही एक अन्य व्यक्ति होतील हिल ने डाक सेवा में सुधार के लिए कई प्रस्ताव तैयार किए और सरकार के समक्ष पेश किए। उन प्रस्तावों पर विचार करने के लिए सरकार द्वारा एक संसदीय समिति गठित की गई। चार्ल्स ने काफी प्रयास करके उस समिति के समक्ष अपना चिपकाने वाला डाक टिकट पेश कर दिया। उन टिकटों का प्रस्ताव उक्त समिति द्वारा स्वीकृत हो गया और 6 मई, 1840 से लंदन के मुख्य डाकघर में उन टिकटों की बिक्री शुरू हो गई। एक पैनी के टिकट काले रंग के और दो पेनी के टिकट नीले रंग के निर्धारित किए गए। कोई आदमी उन टिकटों का उपयोग दुवारा नहीं कर सके इसके लिए उन पर काली मुहर लगाई जाती थी। प्रायः काले रंग वाले टिकट पर काली मुहर दिख नहीं पाती थी। इसका लाभ उठकर कई लोग उस टिकट को उखाड़कर बाद में दुबारा किसी लिफाफे पर चिपका लेते थे। प्रवृत्ति को रोकने के लिए अगले वर्ष, यानी सन् 1841, में काले रंग वाले टिकट को लाल रंग का बना दिया गया।
‘चोर चोरी से जाए, हेरा-फेरी से न जाए’ –इस उक्ति को उन जालसाज लोगों ने सिद्ध कर दिखाया। वे लोग गई टिकटों से मुहर वाला भाग काटकर फेंक देते थे और शेष भाग को सही ढंग से जोड़-जोड़कर नया टिकट बना लेते थे। मुहर लगे बीच टिकटों से वे लोग आठ-नौ नया टिकट तैयार कर ही लेते थे।
ऐसे लोगों के दुष्कर्मों को फिर से रोकने के उद्देश्य से सन् 1842 में ऐसे डाक टिकट बेचने के लिए बनाए जाने लगे, जिनके चारों कोनों पर कुछ अक्षर छपे रहते थे। कटे-कटे टिकट के अंशों को चिपकाकर बनाए गए टिकटों में सही स्थान पर सही अक्षर को लगाना लगभग असम्भव-सा काम था। अतः अब टिकटों की जालसाजी पर पूरी नियंत्रण पा लिया गया।
अंत में प्रश्न रह ही जाता है कि डाक टिकटों का जन्मदाता किसे माना जाए-जेम्स चार्ल्स को या रॉलैंड हिल को? दोनों ने लगभग एक ही ‘समय डाक टिकट का विचार और रूप-रंग सार्वजनिक किया था। उन दोनों ने आपस में तो कभी इस विषय पर तकरार नहीं की, लेकिन चार दशकों के बाद उनकी संतानों में यह बहस छिड़ गई कि डाक टिकट के वास्तविक आविष्कर्ता उनके पिता ही थे। जेम्स चार्ल्स के पुत्र पैटिक चार्ल्स ने तो रॉलैंड हिल के पुत्र के पास ढाई दर्जन से अधिक पत्र यह
आरोप लगाते हुए लिखे कि तुम्हारे पिता (रॉलैंड हिल) ने मेरे पिता के । टिकटों के विचार को चुरा लिया था।