हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग ‘भक्तिकाल
Hindi Sahitya ka Swarn Yug Bhaktikal
हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग ‘भक्तिकाल’ का उदय-अस्त काल संवत् 1375 से 1700 संवत् तक माना जाता है। हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है। इसे स्वर्णकाल या स्वर्ण युग कहने की बहत बड़ा अर्थ और अभिप्राय है। इस काल में ही शताब्दियों से चली आती हुई दासता को तोड़ने के। लिए आत्मचेतना के प्रेरक कवियों और समाज-सुधारकों का उदय हुआ। रामानंद, रामानाचार्य, वल्लभाचार्य, शंकराचार्य, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, दादूदयाल, रैदास, तुकाराम, रसखान, रहीम आदि ने देशभक्ति की लहरों को जगाते हुए मानवतावाद का दिव्य सन्देश दिया। इस काल में ही राष्ट्रीय-चेतना और सामाजिक-जागति की अभूतपूर्व आँधी आयी। उसने गुलामी की झाड़-झंखाड़ों को कंपाते हुए तोड़ने, झुकाना शुरू कर दिया। समग्र राष्ट्र को स्वतंत्र रूप सामने आने लगा। एक प्रकार से वैचारिक क्रान्ति की ध्वनि गुजित होने लगी। भाषा-साहित्य की पहचान के हारा नैराश्यमय अन्धयाताबरण धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न होने लगा और समाज स्वावलम्बन की दिशा में आगे बढ़ने लगे।
भक्तिकाल में धार्मिक भावनाओं से उत्प्रेरित विभिन्न मतवादी काव्य-साधनाओं को जन्म हुआ। इस प्रकार मतवादों का प्रवाह दक्षिण भारत में आलबार भक्तों के द्वारा प्रवाहित हुआ था। अलवारों के बाद दक्षिण में आचार्यों की परम्परा में विशिष्टाद्वैव, अद्वैत, वैत और अद्वैताद्वैत वाद का प्रतिपादन हुआ। विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य की ही परम्परा में रामानन्द जी हुए थे। रामानन्द की लम्बी शिष्य-श्रृंखला थी। उसमें कबीरदास-जुलाहा, भवानन्द-ब्राह्मण, पीपा-राजपूत-धन्ना-जाट, सेना-नाई, रैदास चमार तथा सदना-कसाई थे। इस प्रकार रामानन्द ने जात-पाँत के भेदों को दूर करके मानवतावाद के स्थापना की थी। रामानन्द के शिष्यों में कबीर सर्वाधिक चर्चित और लोवाप्रिय हुए थे। कबीरदास का निर्गुण मत का प्रचार-प्रसार बहुत तेजी से हुआ था। विष्णु स्वामी की परम्परा में महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्रभाव स्थापित हुआ। उन्होंने पुष्टिमार्ग की स्थापना – की। इसकी स्थापना के बाद यह सम्प्रदाय अष्टछाप के नाम से जाना गया। इसे यह नाम इसलिए दिया गया कि उसमें आठ कवियों सूरदास, कभनदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, नन्ददास, छीतस्वामी, गोविन्द स्वामी और चतुर्भुज दास का योगदान था। इनमें सर्वाधिक ख्यातिलब्ध रचनाकार महाकवि सूरदास जी हुए थे। इन्हें सगुण काव्यधारा-कृष्णभक्ति मार्ग के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में मान्यता दी गई है।
रामभक्ति के वास्तविक प्रवर्तक तो रामानन्द जी ही थे। क्योंकि इनसे प्रचारित भक्तिधारा का स्रोत निर्गुण और सगुण दोनों ही रूपों में प्रस्फुटित हुआ था। निर्गुण धारा में कबीर, रैदास, दादूदयाल, पीपा, धन्ना आदि प्रवाहित हुए थे। इसी रामानन्द की भक्ति-परम्परा में सगुण भक्ति काव्यधारा के रामाश्रयी शाखा के सर्वप्रधान कवि तुलसीदास जी हुए, जिन्होंने रामोपासना के विभिन्न ग्रन्थों के द्वारा लोक-प्रतिष्ठ अर्जित कर ली।
भक्ति-काव्यधारा में निर्गुण भक्ति-शाखा के प्रेममार्गी काव्य-रचना के शिरोमणि कवि मलिक मुहम्मद जायसी हुए, जिन्होंने अपनी काव्य-रचनाओं के द्वारा ईश्वर-प्राप्ति का एकमात्र आधार प्रेम-मार्ग ही बतलाया था। भक्तिकाल की सभी काव्यकृतियों में एक साथ कई प्रकार की विशेषताएँ। दिखाई पड़ती है, जो निम्नलिखित हैं–
- गुरु महिमा-भक्तिकाल में सबसे अधिक गुरुमहत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कबीरदास ने अपनी साखी रचना में कहा है–
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागो पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।
इसी तरह तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई जायसी आदि ने गुरु महत्त्व को बतलाया है।
- इष्टदेव का महत्त्वांकन-भक्तिकाल के सभी कवियों ने अपने-अपने इष्टदेव के महत्व को अंकित किया है। तुलसीदास ने अपनी महाकाव्य-कृति रामचरितमानस में स्पष्ट लिखा है–
रामहिं केवल मोहिं पियारा। जान लेहु जो जाननिहारा।
- नाम की महिमा-भक्तिकाल के कवियों ने अपने इष्ट के नाम का । प्रतिपादन सबसे बढ़कर किया है। इस संदर्भ में तुलसीदास जी ने स्पष्टतः कहा कि–
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
कहाँ कहा कहि नाम बड़ाई। राम न सकहिं नाम गुन गाई।।
- अपार भक्तिधारा-भक्ति का आग्रह या भक्ति की अपार धारा इस काल में कहीं भी देखी जा सकती है। इसकी प्रधानता के कारण ही इस काल का । नाम भक्तिकाल रखना सर्वथा उचित और न्यायसंगत लगता है।
- सत्संगति का महत्त्वोल्लेख-सज्जनों की प्रशंसा और दुर्जनों की निन्दा । करके समाज में इसकी आवश्यकता पर बल दिया–
कबीरा संगति साधु की, हरे और व्याधि।
संगति बुरी असाधु, की बर्दै कोटि अपराधि।।
- आडम्बरों का खण्डन-विरोध-भक्तिकाल में सभी प्रकार के आडम्बरों का खंडन करते हुए मानवतावाद की स्थापना की गयी। कबीरदास ने मूर्ति पूजा के विरोध में कहा–
कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
भक्तिकाल की विशेषताओं का चरितार्थ करने वाले रचनाकारों के ग्रन्थों में तुलसीदासकृत रामचरितमानस, विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, वरवै, रामायण, वैराग्य संदीपनी, हनुमान बाहुक, सूरदास जी कृत सूरसागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी कबीरदास जी कृत साखी, सबद, रमैनी, मलिक मुहम्मद जायसी कृत पदमावत्, अखरावट और आख़िरी कलाम आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में भक्ति-सम्बन्धित रचनाओं के साथ-साथ काव्य के आवश्यक अंग, जैसे—रस, छन्द, अलंकार, बिम्ब प्रतीक, योजना, रूपक, भाव आदि का सुन्दर चित्रण हुआ है। इस प्रकार से भक्तिकाल का महत्त्व साहित्य और भक्ति-भावना दोनों ही दृष्टियों से बहुत अधिक है। इससे सामाजिक और राष्ट्रीय-चेतना को अपेक्षित दिशाबोध प्राप्त हुआ। इसी कारण इस काल स्वर्ण-युग कहा जाता है।