देश भक्ति
Desh Bhakti
भूमिका- संस्कृत में कहा गया है कि जन्म देने वाली मां तथा मातृ भूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है। पक्षी अपने घोसलों से प्यार करते हैं। मनुष्य तो ज्ञान का भण्डार है फिर वह अपने देश से प्यार क्यों न करें। पशु और मनुष्य का ज्ञान में अन्तर है। इसीलिए सभी पशु मनुष्य के नियन्त्रण में हैं। आज मानव जीवन में बड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले मानव गुफाओं में या झोपड़ियों में रहता था। मानव जीवन उन्नति के शिखर पर पहुँच गया है। मनुष्य ने अपने सामाजिक जीवन का महत्त्व समझना और अपनी बुद्धि तथा विवेक से देश तथा राष्ट्र की कल्पना की और उसे साकार किया। मानव अपनी मातृभूमि, अपने घर, अपने बन-उपवन के प्रति विशेष प्यार जागृत करता है।
देश शब्द का अर्थ- देश एक ऐसे जन समुदाय का नाम है जो भूमि, जन और संस्कृति को एक सूत्र में बंधे हुए है। देश में रहने वाले भिन्न-भिन्न जाति और धर्म के लोग होते हैं। भारत में भी अनेक जातियों के लोग निवास | करते है जैसे हिन्द मुस्लमान, सिक्ख, इसाई आदि। वे सब पहले भारतवासी हैं इसके बाद वे कछ ओर हैं। एक देश में रहने वाले सभी धर्मों के लोग आपस में भाई-भाई बनकर रहते हैं। ऐसे जन समुदाय को हम देश कहते हैं जो एक ही भू-भाग में रहता है जो एक ही संस्कृति में विश्वास रखता है। देश सेवा से अभिप्राय है ऐसे लोगों की सेवा जो एक देशीय कहलाते हो। जब तक हम इकट्ठे होकर संसार में एकता का प्रदर्शन नहीं करते, शत्रुओं को हराने की ताकत नहीं रखते, जब तक समूचे देश की सम्पति और संकटों में साझीदार नहीं बनते तब तक देश-प्रेम की बात करना कोई मायने नहीं रखता। देश प्रेम तब तक अधूरा रहेगा जब तक मानव को अपने देश के प्राकृतिक सौन्दर्य और देश में पैदा होने वाले जीव-जन्तुओं का ज्ञान न हो।
भारत की अवनति के कारण- भारत की अवनति के अनेक कारण हैं। जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है। अगर देश के निवासी अपने देश के प्रति कर्त्तव्यों को भूल जाते हैं तो वे परतन्त्रता की बेढ़ियों में जकड़े रहते हैं। स्वतन्त्रता के लिए तप और त्याग की भावना होनी चाहिए। देश की रक्षा के लिए एकता और संगठन जरूरी है। भारत पर यनान का आक्रमण हुआ। शकों और हूणों का आक्रमण हुआ, वे सभी हार खाकर शकों चले गए क्योंकि हम एकता के सूत्र से पिरोए हुए थे। जब हमने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ा तो भारत माता दासता की बेड़ियों से जकड़ी गई। पहले मुसलमानों की दासता और फिर अग्रेजों की दासता स्वीकार करनी पड़ी। भारत की दुर्दशा पर अनेक विद्वानों ने करुणा के अश्रु बहाए।
यद्यपि आज हम स्वतन्त्र हैं। तथापि बड़े दु:ख से कहना पड़ता है कि देश भक्ति की भावना अभी तक नहीं आई। हमें आपसी झगड़ों से ही छुटकारा नहीं मिलता। प्रान्तों के नाम पर देश कई छोटे-छोटे प्रान्तों में बंट गया है। राष्ट्रीयता के नाम पर प्रान्तीयता ने घर कर लिया है। भाषा सम्बन्धी झगड़े खड़े हो गए हैं। राष्ट्र भाषा का भविष्य क्या होगा। कुछ भी कहा नहीं जा सकता। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सबमें निराशा घर किए हुए हैं।
कितने दुःख की बात है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पैंसठ वर्ष बीत जाने पर भी हम अपने देश के प्रति कर्त्तव्य पालन नहीं करते हैं। आम चुनावों में हम जातिवाद का झगड़ा खड़ा कर देते हैं; टैक्स की हम चोरी करते हैं। भाषा के नाम हमारे यहां खून खराबा होता है। हमें महाभारत में कहे युधिष्ठिर के शब्दों को याद रखना चाहिए।
देश के प्रति हमारा फर्ज- हमें सदैव अपने कर्तव्यों को समझ कर उनका पालन करना चाहिए। प्रत्येक देशवासी को चाहे वह किसी भी क्षेत्र में है उसे वहीं ही अपने कर्तव्यों को जानना होगा तभी हम अपनी प्रगति, सुरक्षा, सुख और शान्ति की कामना कर सकते हैं। किसान हो अथवा अध्यापक, मजदूर हो या कारीगर, सैनिक हो अथवा साधारण नागरिक, युवा हो या वृद्ध, स्त्री हो या पुरुष अगर सभी अपने-अपने कार्य के प्रति, उतरदायित्व के प्रति सचेत हैं तो वह अपने देश के प्रति अपना कर्त्तव्य पूर्ण करते हैं। प्रत्येक देशवासी का फर्ज बनता है कि देश के किसी भी भाग में लोग भूकम्प, बाढ़, अकाल, सूखा आदि प्राकृतिक वाधाओं का शिकार हो जाएं तो उनका हिता करने में कोई कसर न छोड़ें। हमें अपने देश में मिलावट, ब्लैक मार्किट, महंगाई, तोड़-फोड़, छोटी-छोटी बातों पर झगड़े फैलाने, द्वेष की आग को भड़काने आदि कार्यों से दूर रहना चाहिए।
उपसंहार- राष्ट्र और देश के प्रति अपने प्रेम के कारण स्वतन्त्रता सग्राम में अनेकों लोगों ने अपने जीवन बलिदान दिया। आज हम सबका पहला फर्ज है कि हम अपना राष्ट्र की सभी प्रकार समृद्धि करें। यह मानवता का। धर्म है।