भयंकर गर्मी में पत्थर तोड़ती मजदूरिन
Bhaynkar Garmi main Pathar todati Majdoori
जून का महीना था। गर्मी इतनी प्रचण्ड पड़ रही थी कि मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक सभी घबरा उठे थे। दूरदर्शन पर बीती रात बताया गया था कि गर्मी का प्रकोप 46 डिग्री तक बढ़ जाने का अनुमान है। सड़कें सूनी हो गई थीं। यातायात भी मानों रुक गया हो। लगता था वृक्षों की छाया भी गर्मी की भीषणता से घबरा कर छाया तलाश रही थी। ऐसे में हमारे मुहल्ले के कुछ लड़के वृक्षों की छाया में क्रिकेट खेल रहे थे। उनमें मेरा छोटा भाई भी था। मेरी माँ ने कहा उसे लिवा लाओ कहीं लू न लग जाए। मैं उसे लेने के लिए घर से निकला तो मैंने कड़कती धूप और भीषण गर्मी में एक मजदूरिन को एक नये बन रहे मकान के पास पत्थर तोड़ते देखा। जहाँ वह स्त्री पत्थर तोड़ रही थी वहाँ आस-पास कोई वृक्ष भी नहीं था। वह गर्मी की भयंकरता की परवाह न करके भी हथौड़ा चलाए जा रही थी। उसके माथे से पसीना चू रहा था। कभी-कभी वह उदास नजरों से सामने वाले मकानों की ओर देख लेती थी। जिन के अमीर मालिक गर्मी को भगाने के पूरे उपाय करके अपने घरों में आराम कर रहे थे। उसे देख कर मेरे मन में आया कि विधि की यह कैसी विडंबना है कि जो लोग मकान बनाने वाले हैं वे तो कड़कती दुपहर में काम कर रहे हैं और जिन लोगों के मकान बन रहे हैं वे इस कष्ट से दूर हैं। मेरी सहानुभूति भरी। नज़र को देखकर वह मजदूरिन पहले तो कुछ ठिठकी किन्तु फिर कुछ ध्यान कर अपने काम में व्यस्त हो गयी। उसकी नजरें मुझे जैसे कह रही हों काम नहीं करूंगी तो रात को रोटी कैसे पकेगी। मैं वेतन भोगी नहीं दिहाड़ीदार मज़दूर हूँ। इस सामाजिक अन्य को देख कर मेरा हृदय चीत्कार कर उठा काश ! मैं इन लोगों के लिए कुछ कर सकता।