तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर
Tete Pav Pasariye Jeti Lambi Sor
इस सूक्ति का अर्थ है कि हमें अपने साधनों के अनुसार ही खर्च करने चाहिए। जितनी चादर हो, उतने ही पाँव फैलाने चाहिए। यह उपदेश इसलिए दिया जाता है क्योंकि मनुष्य के पास एक ऐसा चित्त है जो असीम है। उसकेपास कोई सीमा नहीं है। मनुष्य की इंद्रियाँ तो जल्दी ही थक जाती हैं, किन्तु मन कभी नहीं थकता। मन में सदा चचलता और लालच भरी रहती है। कोई पशु पेट भर खाने के बाद कल संग्रह नहीं करता। शेर भी भूखा होने पर ही शिकार करता है, वरना वह पशुओं पर आक्रमण नहीं करता। परंतु आदमी ऐसा जीव है जो कि भा अगले दिन के लिए, अगले वर्ष के लिए सारी जिंदगी के लिए अपने बच्चों के लिए, अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए और फिर अपने अहंकार के लिए इकट्ठा करता चला जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि उसे कहाँ रुकना है। उसका मन शरीर की जरूरतों से भी अधिक चौकडियाँ मारता है। आदमी के इस पागलपन का कहीं कोई अंत नहीं है। यदि अंत होता तो न कभी युद्ध होते और न बाजारों में इस तरह लूट का खुला खेल होता। आज सभी कॉम्पनियाँ इस चक्कर में घूम रही हैं कि किस तरह लोगों की जरूरतें बढ़ाएँ ताकि उनका माल बिके और वे अधिक धनी हो। वास्तव में वे लालच के शिकार होकर और लोगों को अधिक लालची बनाने में लगे हुए हैं। वे लोगों को सिखा रहे है कि अधिक खाओ और फिर दवाइयाँ खाकर उसे पचाओ। बिना धन के मकान खरीदो, कार खरीदो, जमीन खरीदो। परंतु जरूरत न ने पर भी खरीदो। यह लालच और अहंकार का गंदा खेल है। आज महँगाई का दौर है। इस दौर में आम आदमी के लिए दो वक्त की रोटी खाना भी कठिन हो गया है, इसलिए ऐसे समय में ऐसी कुमति से दूर ही रहना चाहिए।