श्री गणेश प्रथम पूज्य क्यों? गणेश जी की ही पूजा सबसे पहले क्यों होती है?

श्री गणेश प्रथम पूज्य क्यों?

Pauranik-Kahta

 

(आदी गणपति वन्दे विघ्ननाशं विनायकम)

श्री गणेश का प्रत्येक शुभाशुभ कार्य के आरम्भ में आस्तिक हिन्दू समाज पूजन-बन्दन एवं ध्यान करना अपना परम कर्तव्य समझता है। योगी याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति में लिखा है।

एवं विनायक पूज्य राहांश्चैव विधानतः।

कर्मणा फलमाप्नोति श्रिय चाप्नोत्यनुत्तमात्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति आचारध्याय 292)

अर्थात् ‘पूर्वोक्त विधि के अनुसार गणपति की पूजा करके विधिपूर्वक नवग्रह का पूजन करना चाहिए, जिसमें समस्त कार्यों का फल प्राप्त होता है तथा लक्ष्मी की भी प्राप्ति होती है।’

कोई ऐसा कार्य नहीं, जो कि गणपति-पूजन के बिना आरम्भ किया जाता हो। अनेक लोगों का यही प्रश्न होता है कि अनेक सन्दर और शक्तिशाली देवता हैं। सूर्य हमें रोशनी देते हैं, इन्द्रदेव पानी बरसा कर अन्न उपजाने में सहायता करते हैं। जीवधारियों के प्राणरक्षक पवनदेव हैं, फिर गणेश जी की प्रथम पूजा क्यों होती है?

हिन्दूधर्म में किसी भी शुभकार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी की पूजा करना आव माना गया है, क्योंकि उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी कहा जाता है। इनके स्मरण, ध्यान जप, आराधना से कामनाओं की पूर्ति होती है व विघ्नों का विनाश होता है। वे शीघ्र प्रसन्न होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात प्रणवरूप हैं। गणेश का अर्थ है-‘गणों का ईश।’ अर्थात् गणों का स्वामी। किसी पूजा, आराधना, अनुष्ठान व कार्य में गणेश जी के गण कोई विघ्न-बाधा न पहना इसलिए सर्वप्रथम गणेश-पूजा करके उनकी कृपा प्राप्त की जाती है। प्रत्येक शुभकार्य के पर्व श्रीगणेशाय नमः का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मंत्र बोला जाता है-

वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्य समप्रभः।

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

अर्थात ‘विशाल आकार और टेढ़ी सूंड वाले करोड़ों सूर्यों के समान तेज वाले हे देव (गणेशजी। मेरे समस्त कार्यों को सदा विघ्नरहित पूर्ण (सम्पन्न) करें।’

वेदों में भी गणेश की महत्ता व उनके विघ्नहर्ता स्वरूप की ब्रह्मरूप में स्तुति व आवाहन करते हुए कहा गया है

ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कवि कवीनाम्पश्रवस्तमम्।

ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रीण्वन्नुतिभिः सीद सादनम्।। (ऋग्वेद 2/23/1)

अर्थात् ‘तुम देवगणों के प्रभु होने से गणपति हो, ज्ञानियों में श्रेष्ठ हो, उत्कृष्ट रीतिवालों में श्रेष्ठ हो। तुम शिव के ज्येष्ठ पुत्र हो, अत: हम आदर से तुम्हारा आह्वान करते हैं। हे ब्रह्मणस्पते गणेश! तम अपनी समस्त शक्तियों के साथ इस आसन पर आओ।’

दूसरे मंत्र में कहा गया है।

निए सीद गणपते गणेषु त्वामाहर्विप्रतमं कवीनाम्।

न ऋते त्वत् क्रियते किंच नारे महामर्क मघवंचित्रमर्च।। (ऋग्वेद 10/112/9)

अर्थात् ‘हे गणपते! आप देव आदि समूह में विराजिए, क्योंकि समस्त बुद्धिमानों में आप ही श्रेष्ठ हैं। आपके बिना समीप या दूर का कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता। हे पूज्य आदरणीय गणपते! हमारे सत्कार्यों को निर्विघ्न पूर्ण करने की कृपा कीजिए।’

गणेश जी विद्या के देवता हैं। साधना में उच्चस्तरीय दूरदर्शिता आ जाये, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य की पहचान हो जाये, इसीलिए सभी शुभकार्यों में गणेशपूजन का विधान बनाया गया है।

 

गणेश जी की ही पूजा सबसे पहले क्यों होती है, इसकी पौराणिक कथा इस प्रकार है

एक पौराणिक कथा के अनुसार- प्राचीन काल में एक बार देवताओं की सभा हुई और उनके मध्य यह प्रसंग उठा कि सबमें श्रेष्ठ कौन है? सभी देवता अपने-अपने को श्रेष्ठ समझ रहे थे। इस तरह निर्णय न हो सका। अन्ततः निश्चित हुआ कि जो तीनों लोकों की सबसे पहले परिक्रमा करके इस स्थान पर पहुँचेगा, वही सर्वश्रेष्ठ एवं प्रथम पूज्य होगा। यह सुनकर सभी देवता अपने तीव्रगामी वाहनों पर सवार होकर तीनों लोकों की परिक्रमा करने चल पड़े, किन्तु भारी-भरकम शरीर वाले गणेश जी अपने वाहन मूषक (चूहे) के साथ वहीं रह गये, किन्तु उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। वे वहाँ से चलकर उस स्थान पर गये, जहाँ उनके माता-पिता (शिव-पार्वती) बैठे हुए थे। उन्होंने माता-पिता की तीन बार परिक्रमा की और जाकर सभापति के आसन पर बैठ गये। सर्वप्रथम मूयर (मोर) पर आरूढ़ कार्तिकेय जी तीनों लोकों की परिक्रमा करके पहुँचे और सभापति के आसन पर विराजमान गणेश को लड्डू खाते हुए देखकर क्रोधित होकर विवाद करने लगे। तत्पश्चात गणेश जी ने सभी देवताओं के समक्ष तर्क प्रस्तुत किया कि तीनों लोकों की सुख-सम्पदा माता-पिता के चरणों में विराजती है। माता-पिता की चरण सेवा ही सर्वोपरि है। जो इनके चरणों को छोड़कर लोकों का भ्रमण करता है, उसका सारा परिश्रम व्यर्थ चला जाता है।’

वाराहपुराण की कथा के अनुसारजब देवगणों की प्रार्थना सुनकर महादेव ने उमा की ओर निर्निमेष नेत्रों से देखा, उसी समय रुद्र के मुखरूपी आकाश से एक परम सुन्दर, तेजस्वी कुमार वहाँ प्रकट हो गया।

उसमें ब्रह्म के सब गुण विद्यमान थे और वह दूसरा रुद्र जैसा ही लगता था। उसके रूप को देखकर पार्वती को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप दिया कि ‘हे कुमार! तू हाथी के सिर वाला, लम्बे पेट वाला और साँपों के जनेऊ वाला हो जाएगा।’ इस पर शंकर जी ने क्रोधित होकर अपने शरीर को धुना, तो उनके रोमों से हाथी के सिर वाले, नीले अंजन जैसे रंग वाले, अनेक शस्त्रों को धारण किये हुए इतने विनायक उत्पन्न हुए कि पृथ्वी क्षुब्ध हो उठी, देवगण भी घबरा गये। तब ब्रह्मा ने महादेव से प्रार्थना की-‘हे त्रिशूलधारी! आपके मुख से पैदा हुए ये विनायकगण आपके इस पुत्र के वश में रहें। आप प्रसन्न होकर इन सबको ऐसा ही वर दें।’ तब महादेव ने अपने उस पुत्र से कहा-‘तुम्हारे भव, गजास्व, गणेश और विनायक नाम होंगे। यह सब क्रूर दृष्टि वाले प्रचण्ड विनायक तुम्हारे भृत्य होंगे। यज्ञादि कार्यों में तुम्हारी सबसे पहले पूजा होगी, अन्यथा तुम कार्य के सिद्ध होने में विघ्न उपस्थित कर दोगे।’ इसके अनन्तर देवगणों ने गणेश जी की स्तुति की और शंकर ने उनका अभिषेक किया।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार-‘एक बार देवताओं ने गोमती के तट पर यज्ञ प्रारम्भ किया, तो उसमें अनेक विघ्न पड़ने लगे। यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सका। उदास होकर देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु से इसका कारण पूछा। दयामय चतुरानन ने पता लगाकर बताया कि इस यज्ञ में श्री गणेश जी विघ्न उपस्थित कर रहे हैं। यदि आप लोग विनायक को प्रसन्न कर लें, तब यज्ञ पूर्ण हो जाएगा। विधाता की सलाह से देवताओं ने स्नान कर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक गणेश जी का पूजन किया। विघ्नराज गणेश जी की कृपा से यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। उल्लेखनीय है कि महादेव द्वारा त्रिपुरवध करने के सन्दर्भ में इसी प्रकार गणेश के प्रथम पूज्य होने के सम्बन्ध में विभिन्न पुराणों में विभिन्न कथाएँ कही गयी हैं कि त्रिपुरवध के समय पहले इन्होंने गणेश जी का पूजन किया था।

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