शिव-पार्वती के विवाह में गणेश-पूजन कैसे?
Shiv Parvati ke Vivah mein Ganesh Pujan Kaise?
पार्वती द्वारा निर्मित गणेश ‘महागणपति’ के अवतार हैं। पार्वती ने मृत्तिका को आकार देकर महागणपति का आह्वान किया। यह महागणपति सृष्टि-निर्माण होने के पूर्व निर्गुण एवं कटस्थ स्वरूप में आया महातत्त्व है। इस महागणपति ने विविध प्रसंगों पर विभिन्न प्रकार के अवतार लेकर दष्टों का संहार एवं सृष्टि का प्रतिपालन किया।
स्कन्दपुराण, शिवपुराण, वाल्मीकि रामायण आदि में वर्णित है कि शिव-पार्वती के विवाह में गणेश जी का पूजन सर्वप्रथम किया गया। यहाँ शंका यह होती है कि पार्वती के पुत्र होने के कारण जन्म से पूर्व ही ‘गणेश’ की पूजा स्वयं उनकी माता पार्वती एवं पिता शिव ने कैसे की?
इस विषय पर विचार करने से यह ज्ञात होता है कि गणेश को गणपति. आदिदेव और विनायक भी कहा जाता है। वेद आदि शास्त्रों में अनादि, अनन्त, निर्विकार, जगत रचयिता, जगत् पालक, एव जगत् संहारक परमात्मा को ही ‘गणेश’ माना गया है। सनातन (हिन्द) धर्म में उसी सर्वाधार को सब कार्यों के आरम्भ में पूजन किया जाता है।
जो अनादि होगा, वह अनन्त भी होगा और अनादि-अनन्त होगा। वह ब्रह्माण्ड व्याप्त तत्त्व होगा, उसका ब्रह्माण्डीय व्यक्तित्व होगा। देवताओं में भी जिसकी पूजा की जाती है, उस गणेश को ब्रह्माण्डीय व्यक्तित्व के रूप में निरूपित किया गया है। वैदिक ऋषियों के अनुसार-‘देवता’ का अर्थ है-‘परब्रह्म और उसकी आदि प्रकृति की ब्रह्माण्डीय कार्यकारी शक्तियाँ।’ ये शक्तियाँ अनेक हैं। ‘गणेश’ उनमें से एक हैं और ‘गणनायक’ हैं।
विश्व में सारभूत तत्त्व केवल दो हैं-शरीर में स्थित आत्मा और ब्रह्माण्ड में व्याप्त देवता। इनमें ‘देवता’ तो परम ब्रह्म और आदि शक्ति के सनातन कार्यकारी सेवक हैं और ‘आत्मा’ ब्रह्म का सनातन अंश है। देव-शक्तियाँ ब्रह्माण्डीय हैं और आत्मा की उपकारक एवं आधार हैं। गणेश हमारी आत्मा के विकास में आधार स्वरूप और उपकारक देवता हैं।
‘गणेश’ शब्द का अर्थ है-‘ जो समस्त जीवों के ‘ईश’ अर्थात् स्वामी हैं। सृष्टि के उत्पादन में आसुरी शक्तियों द्वारा जो विघ्न-बाधाएँ उपस्थित की जाती हैं, उन्हें दूर करने के लिए स्वयं परमात्मा ही ‘गणपति या गणेश’ रूप में प्रकट होकर ब्रह्मा के कार्य में सहायक होते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि गणों के गणपति या अधिपति गणनायक ही परमात्मा कहे गये हैं।
सनातन (हिन्दू) धर्मावलम्बी अनादि काल से इन्हीं अनादि तथा सर्वपूज्य भगवान् गणपति की पूजा करते चले आ रहे हैं। अर्थात् ‘गणपति’ चिन्मय हैं, आनन्दमय हैं, ब्रह्ममय हैं और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। इन्हीं से इस जगत् की उत्पत्ति होती है और इन्हीं में इस विश्व का लय हो जाता है। शास्त्रों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य ‘गणदेवता’ कहे गये हैं। इस प्रकार समस्त देवगणों, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के स्वामी होने के कारण ही इन्हें ‘गणेश’ कहा गया है।
इस ‘परब्रह्म के असंख्य सगुण अवतार हुए, जिनमें से पार्वती-पुत्र ‘गणेश’ भी एक अवतार हैं। अत: शिव-पार्वती के विवाह में उस आदि ब्रह्म, पूर्णब्रह्म महागणपति ‘गणेश’ की पूजा शिव-पार्वती ने की, न कि पार्वती-पुत्र ‘गणेश’ की।
ऋग्वेद में उसी महागणपति की वन्दना की गयी है-
ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्॥ (ऋग्वेद 2/23/1)
अर्थात् ‘वायु, रुद्र, आदित्य आदि गणदेवों के स्वामी, ऋषिरूप कवियों में वन्दनीय, दिव्य अन्न-सम्पत्ति के स्वामी, समस्त देवों में अग्रगण्य तथा मंत्रसिद्धि के प्रदाता हे गणपति! यज्ञ, जप, तप तथा दान आदि अनुष्ठानों के माध्यम से हम आपका आवाहन करते हैं। आप हमें अभय वर प्रदान करें।’