शंकराचार्य जयन्ती
Shankaracharya Jayanti
केरल प्रदेश के कामटी नामक स्थान पर बैसाख शुक्ला पंचमी संवत् 845 वि. को शंकराचार्य का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु व माता का नाम सुभद्रा था। बालक शंकर का लालन-पालन बहुत प्यार-दुलार से हुआ था। शंकर के जन्म के तीसरे साल ही इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। गुरुकुल में रहकर इन्होंने वेद-उपनिषद् एवं धर्म-ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया। शिक्षा समाप्त होने पर वापस अपने घर लौट आए। जब शंकर बीस वर्ष के थे तब की एक घटना है। ये अपनी माँ के साथ गंगा-स्नान के लिए गए थे। गंगा में स्नान करते समय एक मगर ने इनका पाँव पकड़ लिया। उस समय माँ द्वारा संन्यास लेने की स्वीकृति पाकर ही इनके प्राण बच सके।
संन्यास लेने के बाद श्री गोविन्द भगवतपाद नाम के ऋषि ने उन्हें दीक्षा देकर संन्यासी बनाया। उन्हीं ने इनका नाम शंकराचार्य रखा था । संन्यास धारण कर शंकराचार्य काशी पहुँचे। यहाँ इन्होंने अपनी विद्वता से सबको अचंभित कर दिया था। यहाँ से बद्रीनाथ चले गए। वहीं ज्योतिर्मठ की स्थापना की। वहीं सरस्वती नदी के तट पर बैठकर वेदों, उपनिषदों व गीता पर सरल टीकाएँ लिखीं।
एक बार दरभंगा में मंडन मिश्र और उनकी पत्नी को शास्त्रार्थ में पराजित कर उन्हें संन्यास धारण करा दिया। इससे शंकराचार्य की विद्वता की चर्चा पूरे उत्तर भारत में होने लगी। लोग उनकी विद्वता का लोहा मानने लगे ।
शंकराचार्य ने धर्म के प्रचार के लिए सारे भारत की यात्रा की। शंकराचार्य ने दक्षिण भारत में शृंगेरी मठ, पूर्व दिशा में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन मठ व पश्चिम दिशा में द्वारिका में शारदा पीठ व बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ की स्थापना की।
शंकराचार्य द्वारा दी गई शिक्षाओं में प्रमुख है उनका अद्वैतवाद ! अर्थात् ईश्वर, जीव एवं प्रकृति में कोई भेद नहीं है। संसार मिथ्या है। ईश्वर की उपासना द्वारा ही मनुष्य सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। एक बार मृत्यु हो जाने के बाद मनुष्य इस लोक में नहीं आता। उनका कथन है कि केवल ईश्वर ही सत्य है।
भारतीय संस्कृति के विकास में भी शंकराचार्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ‘शंकर दिग्विजय’, ‘शंकर विजय विलास’ आदि ग्रंथों से शंकराचार्य के जीवन संबंधित तथ्य उजागर होते हैं। इन्हें शिव का अवतार मानते हैं। इन्होंने सोलह वर्ष की आयु में ही ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भाष्य लिख दिया था। आगे चलकर कई ग्रंथों के भाष्य लिखे। तत्कालीन कुरीतियों और अंध- विश्वासों को दूर कर इन्होंने ‘समभावदर्शी’ धर्म की स्थापना की। भारत में राष्ट्रीय एकता, अखंडता व सांस्कृतिक एकता की स्थापना करना इनके अलौकिक व्यक्तित्व व विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है।
पाँच पीठों की स्थापना भारत की एकात्मकता की प्रतीक है! आठ वर्ष की आयु में चारों वेद, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत और सोलह वर्ष की आयु में ‘शंकरभाष्य’ की रचना कर उन्होंने अपने अलौकिक व्यक्तित्व का प्रदर्शन किया। साथ ही यह सिद्ध भी कर दिया कि वे भगवान् शिव के अवतार हैं।
राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने, भारतीय संस्कृति का विस्तार करने व लोगों के मन में धार्मिक आस्था जगाने वाले ऐसे महापुरुष की जयन्ती मनाकर, उनके दिखाए रास्ते पर चलकर भावी राष्ट्र के निर्माण में योगदान दिया जा सकता है।
शंकराचार्य का मात्र बत्तीस वर्ष की अल्प आयु में ही स्वर्गवास हो गया था। इनकी महानता के कारण ही इन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य कहा जाता है।
कैसे मनाएं शंकराचार्य जयन्ती
How to celebrate Shankaracharya Jayanti
- शंकराचार्य का फोटो रखें।
- माल्यार्पण कर दीप प्रज्वलित करें।
- शंकराचार्य शिव के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने बाल्यकाल में ही कई चमत्कार कर दिखाए थे। इनकी जीवनी से प्रेरक प्रसंग बच्चों को सुनाए जाएँ।
- इनके लिखे ग्रंथों की सूची पोस्टर पर लिखकर लगाएँ।
- शंकराचार्य ने पाँच पीठों की स्थापना देश में की है। उनके इन पीठों की संक्षिप्त जानकारी बच्चों को दी जाए।
- इनके कहे स्वर्णिम वाक्यों को पोस्टर पर लिखकर लगाया जाए।