राजनीति और धर्म
Rajneeti aur Dharm
राजनीति और धर्म दो शब्द हैं। एक है राजनीति और दूसरा है धर्म। राजनीति का अर्थ है राज्य का शासन चलाने की नीति या पद्धति। अगर पॉलिटिक्स के अर्थ में लिया जाए तो यह गुटों, वर्गों आदि की पारस्परिक स्पर्धवाली तथा स्वार्थपूर्ण नीति है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने राजनीति के संबंध में कहा है, राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिल, असिधारा से भी अधिक दुर्गम तथा विद्युत शिखा से भी अधिक चंचल है।’ शायद इसीलिए नीति शतक में भर्तृहरि ने इसका परिचय ‘वारांगनेव नृपतिनेक रूपा’ अर्थात् राजनीति वेश्या की तरह अनेक रुपिणी होती है, दिया है। अतः राजनीति में दोष की संभावना अधिक होती है।
धर्म जीवन को चलाने वाले श्रेष्ठ सिद्धांतों का समूह है। यह मनुष्य के समस्त व्यावहारिक कार्य-कलापों का संगतिपूर्ण अर्थवत्ता में ढाल लेने वाला जीवंत प्रयोग है। इसलिए धर्म का क्षेत्र व्यापक है। धर्म व्यक्ति का सहज स्वभाव है। यह परम कर्त्तव्य है। इसलिए कहा गया है, ‘धर्म चक्र प्रवर्तनाय’।
मानव का जीवन धर्म के मौलिक सिद्धांतों पर टिका है। चाहे वह हिन्दू धर्म को मानने वाला हो और चाहे इसाई मत को। वह जन्म से लेकर मृत्य पर्यन्त धार्मिक सिद्धांतों को मानता है। इसलिए धर्म व्यक्ति के समस्त जीवनतंत्र को प्रभावित करता है। धर्म का अर्थ है धारण करने वाला। यह धारणा है; कर्त्तव्य, राजा का देश तथा प्रजा के प्रति कर्त्तव्य। कर्त्तव्य धर्म से तय होता है। इसलिए राजा का कर्त्तव्य धर्म से संचालित होता है। दूसरी ओर राजनीति भुजंग अर्थात् सर्प की तरह कटिल होती है। इसमें दोष की अधिक संभावना रहती है इसलिए उसे दोष मुक्त करने के लिए कुछ मानदण्ड की आवश्यकता होती है। धर्म ही वह मानक है जिसमें राजनीति अपने सत्कर्मों और दुष्कर्मों का चेहरा देखती है।
महात्मा गाँधी ने कहा है कि मैं धर्म के बिना राजनीति की कल्पना भी नहीं कर सकता। अरविन्द जी ने कहा है कि राष्ट्रवाद राजनीति नहीं वरन एक धर्म है, पंथ है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं.” अपने धर्म को फेंकने में सफल होकर राष्ट्रीय जीवन शक्ति के रूप में यदि तुम राजनीति को अपना केन्द्र बनाने में सफल हो गए तो तम समाप्त हो जाआगे।
आज भी धर्म राजनीति से जुड़ा है। शाहबानो केस में सप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद ने निरस्त कर दिया था। अल्पसंख्यकों को रिलिजियस स्कूल खोलने के लिए मंजूरी देना. हजयात्रियों पर करोड़ों खर्च करना, प्रधानमंत्री का ओलिया की कब्र पर चादर चढ़ाना आदि सब दीर्घकालिक राजनीति धर्म है।
जॉर्ज बर्नाड शॉ क्रिश्चियन थे, उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था कि मेरी मत्य के बाद शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाए। यह उदाहरण हमें बहुत-सी बातें समझाता है। धर्म केवल नियम-काननों में बँधना नहीं है, बल्कि धर्म इंसान को दूसरे इंसान के साथ इंसानियत का भाव बनाए रखने में मदद करता है, इसलिए धर्म को राजनीति से अलग देखना चाहिए और उसका राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए।
वर्तमान समय में विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए। यह इसलिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आए ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें।
यह समस्या बहुत गंभीर है। प्राचीन काल में राजा लोग अपनी राजनीति में उस वक्त के ऋषि-मुनियों से विचार-विमर्श करते थे, इसलिए वर्तमान समय में इस समस्या के समाधान के लिए किसी महापुरुष के साथ विचार-विमर्श करना चाहिए जो धर्म, राजनीति के मन्तव्यों को अच्छी तरह जानता हो। यदि उन्हें जीवित महापुरुष न मिले तो प्रचीन संतों, महात्माओं के साहित्य द्वारा समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करना चाहिए। वस्तुतः धर्म को विवादास्पद हेय, निन्दित, घृणित सांप्रदायिकता से हद तक ले जाने का काम सत्ता के लोभी करते हैं। राजनीति दलों को इससे बचना होगा।