पी. टी. उषा
P. T. Usha
जन्म : 27 जून, 1964 जन्मस्थान : पायोली, कोझीकोड (केरल)
पी. टी. उषा ने 20 वर्ष के अपने चमकदार कैरियर में कई राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त किए। उन्हें देश के सर्वोच्च खेल सम्मान ‘पद्मश्री’ से 1984 में सम्मानित किया गया। 1984 में ही उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ दिया गया। 1984 से 1989 तक पी. टी. उषा भारत की ही नहीं, वरन् पूरे एशिया की ‘स्वर्ण परी’ बन कर लोगों के दिल पर राज करती रहीं। लगातार 5 वर्षों तक उन्हें एशिया की सर्वश्रेष्ठ एथलीट बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
‘उड्न परी’, ‘पायोली एक्सप्रेस’, ‘स्वर्ण परी’ आदि नामों से उसे जाना जाता है। ‘पी. टी. उषा’ यानी पिलावुल्लकन्डी थेकापराम्विल उषा ने खेलों के इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराया है। अनेक महिला खिलाड़ी पी. टी. उषा को अपनी प्रेरणास्रोत मानती हैं।
उषा ने 102 अन्तरराष्ट्रीय पदक जीत कर अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया है। इतने पदक विश्व-स्तर के एथलीट मरलीन ऊटी और कार्ल लुइस जैसे खिलाड़ियों ने ही प्राप्त किए हैं। उषा ने 1000 से ज्यादा पदक व ट्राफी राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर पर प्राप्त की।
पी. टी. उषा अपने पिता पैठल, जो कपड़े के एक व्यापारी हैं और मां लक्ष्मी की छह संतानों में से एक हैं। उन्हें बचपन से ही कठिन काम करके आनन्द आता था जैसे ऊंची चारदीवारी फांदना। खेलों में उनकी रुचि तब जागृत हुई जब वह कक्षा 4 में पढ़ती थीं और उनके व्यायाम के अध्यापक बालाकृष्णन ने एक दिन उषा को 7वीं कक्षा की चैंपियन छात्रा के साथ दौड़ा दिया और उषा उस दौड़ में जीत गई।
जब उषा 7वीं कक्षा में पढ़ती थी, तब उसने उप ज़िला एथलेटिक्स में औपचारिक रूप से खेलों की शुरुआत की और जिले की चैंपियन बनकर उभरीं। उन्होंने 4 स्पर्धाओं में प्रथम व एक स्पर्धा में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। तब जी. वी. राजा खेल विद्यालय की केरल में स्थापना की गई जिसमें लड़कियों के लिए खेल विभाग बनाया गया। उषा अनेक विरोधों के बावजूद 1976 में कन्नर के खेल विभाग में शामिल हो गई। उसके बाद ओ. एम. नाम्बियार ने उनके कोच के रूप में उनको चैंपियन बनाने के लिए कड़ी मेहनत की।
उषा को यदि जिन्दगी-भर अफसोस रहेगा तो केवल ओलंपिक मेडल न जीत पाने का। एक मिनट के सौवें हिस्से अर्थात् .001 में क्या कुछ हो सकता है इसके बारे में पी.टी. उषा से बेहतर कोई नहीं जान सकता। यह ओलंपिक मैडल जीतने और हारने का फर्क है।
1984 के ओलंपिक लास एंजिल्स में हुए थे। उन्हीं ओलंपिक खेलों में 400 मीटर की बाधा दौड़ महिलाओं के लिए पहली बार शुरू की गई थी। उषा ने 2 फुट 6 इंच की ऊंची 10 बाधाएं आसानी से 55.42 सेकेंड में पार कर लीं। यहां उन्होंने एशियाई रिकार्ड बनाया परन्तु इतने पर भी वह ओलंपिक का कांस्य पदक भी नहीं प्राप्त कर सकीं। रोमानिया की क्रिस्टीना कोजोकास से वह एक मिनट के सौवें हिस्से से हार गई। कारण यह था कि वह अंतिम क्षणों में अपना पूरा शरीर फिनिशिंग टच की ओर नहीं फेंक पाईं, जिसके कारण वह पदक से चूक गईं।
इस प्रकार उषा ओलंपिक पदक जीतने से वंचित रह गई। आज तक व्यक्तिगत खेलों में कुश्ती के फ्री स्टाइल खिलाडी कशाबा जाधव ने 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में, टेनिस खिलाडी लिएंडर पेस ने 1984 में लास एंजिल्स में और वेटलिफ्टर कर्णम मल्लेश्वरी ने सिडनी में 2000 में कांस्य पदक जीते हैं। इन गिने-चुने ओलंपिक पदकों के अतिरिक्त टीम खेलों में भारतीय हाकी टीम ने स्वर्ण व रजत पदक हासिल किए हैं।
पी. टी. उषा का पूरा नाम जितना लम्बा है उसी तरह उनकी टांगें भी खूब लम्बी हैं जिनके कारण उन्होंने दौड़ में अनेकों पदक हासिल किए। लगभग दो दशक तक वह भारतीय एथलेटिक्स पर छाई रहीं। उन्होंने विश्व स्तर पर भारतीय महिला एथलीटों की उपस्थिति को दर्ज कराया था।
पी. टी. उषा भारतीय महिला टीम की शान थी। उसने अपना कैरियर 1980 के मास्को ओलंपिक से शुरू किया। तब उसने सिर्फ 100 मीटर की फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उसके पश्चात् 1982 के एशियाई खेलों में उषा ने पहली बार भारत के लिए 2 रजत पदक 100 मीटर और 200 मीटर की फर्राटा दौड़ में जीते। ये खेल नई दिल्ली में आयोजित हुए थे।
1983 में कुवैत में आयोजित एशियाई ट्रैक एंड फील्ड मीट में पी. टी. उषा ने 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण, 200 मीटर की दौड़ में रजत पदक जीता। इसके पश्चात् 1984 के लास एंजिल्स में वह ओलंपिक मेडल जीतने से वंचित रह गई, जिसके बारे में सभी जानते हैं।
1984 के ओलंपिक खेलों के यादगार प्रदर्शन के बाद पी. टी. उषा ने अपनी धाक कायम रखते हुए 1985 के जकार्ता में आयोजित ‘एशियन ट्रेक एण्ड फील्ड मोट में पांच स्वर्ण पदक जीत ‘स्वर्ण परी’ का खिताब पाया। उस स्वर्णिम यादगार प्रदर्शन के बाद पी. टी. उषा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसने लगभग हर अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में स्वर्ण जीतने के सिलसिले को कायम रखा। जकार्ता में पी. टी. उषा ने 100 मीटर, 200 मीटर, 400 मीटर तथा 400 मीटर की बाधादौड़ में चार स्वर्ण जीतने के अतिरिक्त 400 मीटर की रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीत कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। पदकों की यह दौड़ यहीं समाप्त नहीं हुई।
उसने 4×400 मीटर की रिले दौड़ में अंतिम लैप में अपनी फर्राटा दौड़ से काफी पीछे चल रही भारतीय टीम को कांस्य पदक जीतने में सफलता दिलवाई। 1985 के जकार्ता खेलों से उषा ने एशियाई खेलों में कमाल दिखाया। यहां उसने 3 स्वर्ण पदकों सहित 100 मीटर की फर्राटा दौड़ का रजत पदक भी भारत को दिलवाया। ये तीन स्वर्ण पदक पी. टी. उषा ने 100 मीटर, 400 मीटर की बाधा दौड़ और 4×400 मीटर की रिले दौड़ में जीते।
1987 में एशियन ट्रैक एण्ड फील्ड मीट में उषा ने पुनः सिंगापुर में 4 स्वर्ण पदक जीते। यहां उसने 200 मीटर, 400 मीटर और 400 मीटर की बाधा-दौड़ के साथ-साथ 4×400 मीटर की रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीते जबकि 100 मीटर की फर्राटा दौड़ में वह रजत पदक ही जीत पाई। टीम स्पर्धा की अन्य प्रतियोगिता 4×400 मीटर में भी पी. टी. उपा ने देश के लिए पुनः अंतिम लैप में जोरदार संघर्ष का परिचय देकर रजत पदक भारतीय महिलाओं को दिलाया।
1984, 1985 और 1986, 87 के शानदार प्रदर्शन को देखकर लग रहा था कि पी. टी. उषा 1984 में ओलंपिक पदक की कमी को 1988 सियोल ओलंपिक खेलों में अवश्य पूरा कर लेंगी, लेकिन बदकिस्मती से अपनी एड़ी की चोट के कारण वह 400 मीटर की अपनी प्रिय बाधा दौड़ में हीट में ही पिछड़ गई।
लेकिन अपनी ‘स्वर्ण परी’ की छवि को उन्होंने पुनः नयी दिल्ली में 1989 में संपन्न हुई एशियाई ट्रैक एंड फील्ड मीट में दोहराते हुए 4 स्वर्ण पदक जीत लिए। नयी दिल्ली में उषा ने 200 मीटर, 400 मीटर, 400 मीटर की बाधा दौड़ और 4×400 मीटर की रिले दौड़ों में स्वर्ण पदक जीते, जबकि 100 मीटर की फर्राटा दौड़ और 4×100 मीटर की रिले दौड़ों में उसे रजत पदकों से संतोष करना पड़ा। पी. टी. उषा के इस बेहतरीन प्रदर्शन के बाद उम्मीद थी कि वह बीजिंग। एशियाई खेलों में 1990 में पुनः अपना सियोल वाला प्रदर्शन दोहराएंगी, लेकिन बीजिंग में किस्मत उषा के साथ नहीं थी, और वह 400 मीटर में रजत और 200 मीटर में चौथा स्थान ही प्राप्त कर सकीं।
उसके बाद कैनोर स्पोर्ट होस्टल से खेलों की उन्होंने लम्बी यात्रा की। ओ. एम. नाम्बियार के निर्देशन में उन्होंने खेल की ऊंचाइयों को छुआ और भारत को गौरव दिलाया। उसके पूर्व ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से प्रसिद्ध मिल्खा सिंह सर्वश्रेष्ठ धावक के रूप में जाने जाते थे क्योंकि 1960 के रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह चौथे स्थान पर रहे थे। अतः उषा के आने के पूर्व भारतीय खिलाड़ियों का वही सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा था।
इसके पश्चात् उषा को ‘एशियन स्प्रिंट क्वीन’ तथा ‘पायोली एक्सप्रेस’ जैसे। नामों से जाना जाने लगा। यह उनके तथा प्रशिक्षक नाम्बियार के प्रयासों का हो नतीजा था क्योंकि भारतीय सिस्टम में किसी खिलाड़ी की प्रतिभा पहचानने व चमकाने की प्रथा ही नहीं थी। लेकिन उषा की मेहनत व रिकार्ड्स ने अनेक महिला खिलाड़ियों को आगे आने के लिए प्रेरित किया है, विशेष कर दक्षिणी भारत के केरल की।
यद्यपि उपा ने कभी भी भारतीय खेल प्रथाओं की आलोचना नहीं की, लेकिन फिर भी उनका मानना है कि हमारे खिलाड़ी केवल क्रिकेट को छोड़कर, गरीब परिवारों से आते हैं। कुछ खिलाड़ी केवल खेल कोटे में नौकरी पाने के लिए खेलों में प्रवेश करते हैं। इसमें बदलाव होना चाहिए। हमारे यहां केवल क्रिकेट के सितारे हैं अन्य खेलों के लिए भी प्रयास किए जाने चाहिए।
उषा ने 1991 में श्रीनिवासन से विवाह कर लिया और उनका उज्ज्वल नाम का बेटा है। विवाह के बाद भी उन्होंने खेलों में अपना अभ्यास निरन्तर बनाए रखा और पुनः खेलों में वापसी की। उन्हें उम्मीद थी कि वह पुनः पदक। प्राप्त कर भारत को नई दिशा प्रदान करेंगी। वास्तव में वह लिनफोर्ड क्रिस्टी, कार्ल लुइस और मर्लिन ओट्टी से बहुत प्रभावित थीं जो सभी 35 वर्ष से अधिक। आयु के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में हालांकि उनसे पदक की बहुत अधिक आशा थी, वह 4×400 मीटर की रिले दौड़ में दौड़ी भी परन्तु हीट मुकाबले में ही बाहर हो गई।
1998 के बैंकाक एशियाई खेलों में अंतिम बार पी. टी. उषा 400 मीटर और 4×400 मीटर की दौड़ों के फाइनल में ही जगह बना पाई। लेकिन अपने विदाई समारोह के पूर्व वह पुनः जापान के फुकोवा शहर में सम्पन्न एशियाई ट्रैक एंड फील्ड मीट में देश को दो कांस्य पदक दिलाने में सफल रहीं। ये दोनों पदक उन्होंने 200 व 100 मीटर की दौड़ में प्राप्त किये। 200 मीटर की दौड़ में उन्होंने 23.27 सैकेंड का अपने राष्ट्रीय रिकार्ड की बराबरी करते हुए कांस्य जीता जबकि 100 मीटर में कांस्य के अतिरिक्त 1४100 मीटर में टीम को स्वर्ण प्राप्त हुआ। उन्होंने अन्तिम वर्षों में अपने प्रशिक्षक नांबियार को बदल कर जसविंदर सिंह भाटिया को बना लिया। अपनी स्पर्धाओं में पदक पाने के लिए कड़ी मेहनत की और अपने बेटे व पति से दूर रह कर सर्वश्रेष्ठ एथलीट का दर्जा दोबारा पाने का प्रयास किया।
उपा की इच्छा है कि उनका पुत्र उज्ज्वल बड़ा होकर उन्हीं की भांति श्रेष्ठ एथलीट बने । उन्होंने वर्ष 2000 में सक्रिय खेलों से संन्यास ले लिया। उनसे पत्रकारों ने पूछा- “पहले भी संन्यास लेकर आप पुनः ट्रैक पर आ गई थीं, ऐसा इस बार फिर तो नहीं होगा?” इस पर उषा ने कहा था-‘जी नहीं, इस बार मेरा यह अंतिम निर्णय है। वापसी का तो अब सवाल ही नहीं उठता। अब मैं अपने बेटे को अकेले नहीं छोड़ना चाहती।”
उषा को इस बात का अफसोस रहा कि कभी-कभार मीडिया उनकी आलोचना करता रहा। उनका मानना था कि वह यूरोपीय या अमेरिका जैसे किसी देश में होतीं-अवश्य ओलंपिक चैंपियन बन जातीं, क्योंकि उन्हें प्रशिक्षण, बेहतर भोजन आदि की सम्पूर्ण सुविधाएं मिलतीं।
पी. टी. उषा को केरल सरकार ने 3 एकड़ जमीन और 15 लाख रुपये दिए जिससे वह एथलेटिक ट्रेनिंग स्कूल खोल सके। वह चाहती हैं कि वह आधुनिक ट्रैक व सुविधाएं जुटाकर देश में सर्वश्रेष्ठ एथलीट दे सके। उन्होंने उषा एथलेटिक एकेडेमी नामक 40 करोड़ का प्रोजेक्ट तैयार किया है जिसमें वह अपना पूरा समय दे रही हैं।
एक बार उपा पर ड्रग्स लेने का आरोप भी लगाया गया जो निराधार साबित हुआ। पी. टी. उषा की उपलब्धियों को एथलेटिक खेलों में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
उपलब्धियां :
- 1977 में कोट्टायम में राज्य एथलेटिक मीट में राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया। ३ 1978 में उषा चर्चा में आई, जब उसने जूनियर एथलीट के रूप में राष्ट्रीय अन्तरराज्य प्रतियोगिता में कोल्लम में जीत हासिल की।
- 1980 में उसका चयन 18वें पाकिस्तानी राष्ट्रीय खेल, कराची के लिए राष्ट्रीय खिलाड़ी के रूप में हुआ।
- 1980 में मास्को ओलंपिक में भाग लेने के लिए उसका राष्ट्रीय दल में चयन हुआ।
- पी. टी. उषा किसी ओलंपिक खेल के फाइनल तक पहुंचने वाली प्रथम केरलवासी तथा प्रथम भारतीय महिला खिलाड़ी हैं।
- मास्को ओलंपिक में 16 वर्ष की आयु में भाग लेने पर उषा ओलंपिक खेलों में सबसे कम उम्र की भारतीय धाविका थीं।
- उषा ने 1989 में एशियाई खेलों में दिल्ली में भाग लिया और खेलों का प्रथम पदक जीता। इसमें उसने 100 मीटर तथा 200 मीटर में रजत पदक जीता।
- 1983 में कुवैत एशियन ट्रैक एंड फील्ड मीट, (जिसे बाद में एशियन चैंपियनशिप के नाम से जाना जाने लगा) में उषा ने पहली बार 400 मीटर दौड़ में भाग लिया और उसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहली बार सफलता मिली।
- 1984 के लॉस एंजेल्स में 400 मीटर की बाधा दौड़ में उषा ने 42 सेकंड का एशियाई रिकॉर्ड बनाया। 400 मीटर बाधा दौड़ स्पर्धा महिलाओं के लिए यहां पहली बार आयोजित की गई थी।
- 1985 में उषा ने जकार्ता एशियन एथलेटिक मीट में 5 स्वर्ण तथा 1 कांस्य पदक जीते और स्वयं को ‘एशियन स्प्रिंट क्वीन’ साबित कर दिखाया।
- 1986 के सियोल एशियाई खेलों में उषा ने शानदार प्रदर्शन किया और चार स्वर्ण पदक जीतकर ‘एशियाई स्प्रिंट क्वीन’ का खिताब हासिल किया।
- उषा ने 1980 से 1996 (अटलांटा) तक होने वाले सभी ओलांपिक खेलों में भाग लिया। 1982 में वार्सिलोना ओलंपिक में वह भाग नहीं ले सकीं।
- उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 102 पदक जीत कर अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया है।
- उषा ने 1000 से अधिक पदक व ट्राफी राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर पर प्राप्त की।