Mera Desh Mera Kartvya “मेरा देश मेरा कर्त्तव्य” Hindi Essay 1000 Words, Best Essay, Paragraph, Anuched for Class 8, 9, 10, 12 Students.

मेरा देश मेरा कर्त्तव्य

Mera Desh Mera Kartvya

मैं भारत का हूँ। इसके लिए मेरा तन, मन और धन कुर्बान है। मैं अपने देश को समस्याओं से मुक्त देखना चाहता हूँ इसलिए इसके प्रति मेरा कर्त्तव्य है कि इस के समक्ष आ रही तमाम समस्याओं को समाप्त करने में अगर प्राणों की बाज़ी भी लगानी पड़े तो लगा दूँ। केवल इतना ही काफी नहीं है कि मैं अपने देश से अधिकारों की माँग करता रहँ। अधिकार प्राप्त हैं तो मेरा यह भी कर्तव्य है कि उन अधिकारों का बेजा इस्तेमाल न होने दूं। जैसे हमें बोलने की स्वतंत्रता संविधान से प्राप्त है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम इस अधिकार के तहत किसी से भी बदसुलूकी करते फिरें। हमें सड़क पर चलने का अधिकार है तो हमारा यह भी कर्त्तव्य है कि हम उसे साफ़-सुथरा रखें। मेरा चौबीसों घंटे यही प्रयास रहता है कि मैं अपने देश की हिफाजत इस तरह करूँ जिस तरह मुहल्ले की सुरक्षा कोई पहरेदार करता है। मेरी हर कोशिश यही है कि उन पर हमेशा तीखी नज़र रखू जो देश जोड़ने की नहीं अपितु देश तोड़ने की बात करते हैं। अगर मुझे कोई ऐसा आदमी मिले तो मेरा कर्त्तव्य है कि उसकी तत्काल खुफिया एजेंसी को इत्तिला करूँ ताकि वक्त रहते उसे देश का नुकसान करने से रोक , हर भारतीय का यह पहला कर्त्तव्य है कि जिस देश की रज में लोट-लोट वह बड़ा हुआ है। उसे अपनी माता समुझे। जिस तरह माता का कर्त्तव्य सौ जन्म सेवा करने पर भी नहीं चुकाया जा सकता उसी तरह भारत की तन मन-धन से सेवा करने के बाद भी उसका कर्ज नहीं चुकाया जा सकता। मैं तो इतना मानता हूँ कि मैं जो भी कार्य जिस जगह कर रहा हूँ वह देश का काम ही कर रहा हूँ। अगर मैं पढ़ाई कर रहा हूँ तो वह भी देश के लिए ही कर रहा हूँ। मैं पढ़कर जिस भी क्षेत्र में जाऊँ, वह देश की सेवा ही होगी। एक कवि का यह कथन सत्य ही है

किसी देश का लोक जागरूक हो इसके लिए उसका चिंतनशील, संवेदनशील, अनुभवी, शक्तिशाली और क्रियाशील होना आवश्यक है। ये सभी गुण तभी आते हैं जब लोग समाज के सामने आने वाली समसस्याओं पर सोचते हैं, विचारते हैं और समाधान के नए-नए उपाय खोजते हैं। यदि किसी लोकतंत्र के लोग अपनी-अपनी घरेलू या व्यावसायिक समस्याओं से अलग कुछ सोच ही नहीं पाते हैं तो वहाँ लोकतंत्र कभी सफल नहीं हो सकता। यदि भारतीय जन में फैले आंतकवाद पर, भ्रष्टाचार पर, संस्कारों पर, दूरदर्शन के कार्यक्रमों पर, नए फैशन पर, नई बीमारियों पर या नई जीवन शैलियों पर कोई मत नहीं रखते तो अपना तंत्र कैसे स्थापित करेंगे? भारत का समाज आज लिंग-भेद, भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसे मुद्दों पर अनेक समस्याएँ झेल रहा है। इन पर लोकमत जानने और बनाने का काम मीडिया के हाथों में है। प्रश्न यह है कि मीडिया के विविध रूप भारत के लोकमानस को शिक्षित, संस्कारित और जाग्रत करने के लिए क्या कर रहे है? मीडिया का एक काम है-जनता को अधुनातन जानकारियों से युक्त बनाना। इस काम में हमारे अनेक निजी तथा सरकारी चैनल प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। वे लोकमन को छूती हुई सामान्य से लेकर नई घटनाओं को हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। परन्तु कुछ समाचार-पत्र और चैनल जानबूझकर सनसनी फैलाने वाली सूचनाओं द्वारा जनता को क्षुब्ध, आतंकित या भयभीत कर रहे हैं। उन श्लीलता, अश्लीलता तथा गोपनीयता की सभी सीमाओं को लाँघने का भी आरोप लगता रहता है। इस पर संयम रखना स्वयं मीडिया कर्मियों का दायित्व है। कभी-कभी वे ऐसी सामग्री प्रदर्शित करते हैं जो शत्रुदेश के लिए हितकर हो सकती है या कभी जातीय विद्वेष भड़क सकता है। ऐसी भूमिका देश हित में नहीं हो सकती इसलिए उससे बचना चाहिए। मीडिया की सर्वाधिक प्रभावी भूमिका विभिन्न चर्चाओं, वाद-विवादों, साक्षात्कार या सर्वेक्षणों के माध्यम से पूरी होती है। जब आतंकवाद, भ्रष्टाचार, विदेश नीति, परमाणु-बिजली, अर्थव्यवस्था जैसे प्रबल मुद्दों पर जनता और विशेषज्ञ अपनी राय देते हैं तो जनता का भी ‘मन’ जाग्रत होता है। यही लोक-इच्छा लोकतंत्र को मज़बूत करती है।

जब देश पर आक्रमण होता है तब देश के भक्त वीरों के लिए प्राणों का मल्य समाप्त हो जाता है। विजेता जब देश में लूट-पाट करता है, तब प्राणों की शक्ति जवाब दे देती है। रही-सही कसर यह उक्ति निकाल देती है-‘पराधीन सपने हैं सुख नाहि।’ पराधीनता में प्राणों का विसर्जन भी स्वेच्छा से असंभव है। रामायण में वाल्मीकि लिखते हैं,” न शक्यं यत् परित्यक्त मात्मच्छेन्देन जीवितम्। तब इन प्राणों का मोह करने की क्या आवश्यकता है। ये प्राण देश से ज्यादा अहमियत नहीं रखते। जो देश पर प्राणों को न्योछावर करते हैं, उन्हें हुतात्मा कहा जाता है, शहीद कहा जाता है। देश उसकी मृत्यु पर गर्व करता है। उसकी चिता पर हर वर्ष मेले लगते हैं। पुण्यतिथि मनाकर उसको स्मरण किया जाता है। प्रतिमा लगाकर सड़कों, कॉलोनियों, नगरों, शहरों व विभिन्न संस्थाओं के साथ उनका नाम जोड़कर उनकी कीर्ति सुरक्षित रखी जाती है। इतिहास उन्हें अमरता प्रदान करता है। इसीलिए पंडित सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा है-

हों जहाँ बलि शीश अगणित।

एक सिर मेरा मिला लो।

इसी तरह एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘एक फूल की चाह’ में लिखा है

मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंका

मातृभूमि पर शीश चढ़ने, जिस पथ जाबैं वीर अनेक॥ मेरा देश मुझे अपने प्राणों से प्रिय है। इसलिए कि मैंने इसकी गोद में चलना सीखा है। इसकी धूल में लोट-लोट कर बडा हुआ हूँ। इसीलिए धूलभरा हीरा कहलाया हूँ। इसने संपूर्ण सांसारिक सुख प्रदान किए हैं और अंत में मुझे इसी की रज में महानिद्रा करनी है। यह जन्म देने वाला भी है, अपनी गोद में खिलाने वाला भी है और मृत्यु के बाद का महाप्रयाण भी है। मेरे भारत की संस्कृति गौरवपूर्ण है। इसकी महत्ता है, यह प्रकृति का अमूल्य वरदान है। मेरा देश मेरी जन्मस्थली और क्रीडास्थली है। मैं तो अपने देश के लिए यही सोचता हूँ:

प्राण क्या है देश हित के लिए।

देश खोकर जो जिए तो क्या जिए॥

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