कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
Karam Pradhan Vishv Rachi Rakha
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में यह चौपाई लिखी है :
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा॥
पहली पंक्ति का आशय है : संसार की रचना कर्म के लिए की गई है। जीवन में कर्म प्रधान है। यही हमारे जीवन की गति है। यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। श्रीमद्भगवत् गीता में भी यही कहा है, मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म के नहीं रह सकता।
साँस लेना भी तो कर्म ही है। बिना कर्म के शरीर परी यात्रा नहीं कर सकता। जब कर्म को परिभाषित करने का प्रयल किया जाता है तो हमें गीता याद आती है। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है. कर्म की गति गहन है। इसे विद्वान् भी नहीं समझ सकते कि कर्म क्या है और कर्म क्या नहीं है। वे कहते हैं कि मनष्य कर्म करे पर स्वयं को कर्त्ता मानकर अहंकार न करे। कर्म फल की आकांक्षा न करें। केवल कर्त्तव्य समझकर कर्म करें। कर्म केवल शारीरिक सुख प्राप्त करने के लिए न करे, लोककल्याण के लिए करे। मनुष्य को पूर्ण बनने के लिए अपना मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करना होता है। इन सबके लिए परिश्रम करना होगा और अपना बौद्धिक विकास करना होगा। निष्कर्ष यह है कि हमारी जीवन-पद्धति का आवश्यक तत्त्व कर्म है। इसके अभाव में अपना जीवन शून्य है। गोस्वामी जी का यह कथन अपने आप में एक ऐसा सत्य है जो सार्वकालिक है।