जीवन का महत्व
Jeevan ka Mahatva
जीवन दो ढंग से जिया जा सकता है-औरों की सुनकर या अपनी सुनकर। जीवन या तो अनुकरण होता है या स्वस्फूर्त। या तो भीतर की रोशनी से कोई चलता है या उधार की। जो उधार जीता है, व्यर्थ जीता है क्योंकि जो उधार जीता है उसका जीवन थोथा होगा, मिथ्या होगा, ऊपर-ऊपर होगा, लिपा-पुता होगा। जो व्यक्ति स्वस्फूर्त जीवन जीता है, उसके जीवन में सत्य की संभावना है।
अनुकरण धर्म नहीं है, यद्यपि वही धर्म बनकर मनुष्य की छाती पर बैठ गया है। सारी पृथ्वी उन लोगों से भरी है, जो दूसरों का अनुकरण कर रहे हैं। उन्हें पता नहीं; सत्य क्या है? परमात्मा क्या है? न कभी पूछा, न कभी जिज्ञासा की। अन्वेषण के लिए श्रद्धा चाहिए, स्वयं पर श्रद्धा चाहिए।
धर्म के नाम पर हमें दूसरों पर श्रद्धा करने के लिए सिखाया जा रहा है। स्वयं पर श्रद्धा ही धर्म है। लेकिन स्वयं पर श्रद्धा अग्नि से गुजरने जैसी है। स्वयं पर श्रद्धा पाने के लिए पहला कदम नास्तिकता है, आस्तिकता नहीं।
दूसरे का अनुकरण सस्ता है, सुगम है। न कहीं जाना है, न कुछ खोजना है, न कुछ दाँव पर लगाना है। बस, बासी बातों का मान लेना है। भीड जो कहे उसको स्वीकार कर लेना है।
प्रभाव से जो जीता है. वह जीता ही नहीं है। सारी दुनिया करीब-करीब प्रभाव से जीती है। तुम जिसके प्रभाव में पड़ गए. उसके ही रंग में रंग जाते हो। तुम्हारी कोई निजता नहीं है। तुम्हारा अपने भीतर कोई स्वयं का बोध नहीं है कि तुम सोचो, विचारों, विमर्श करो, निर्णय लो।
कर्म तुम्हें बाँधेगा, अगर अनासक्त न हो। और कर्म अनासक्त तभी होता है जब ध्यान से आविर्भूत होता है और ध्यान अनुकरण नहीं है। ध्यान स्वभाव में ठहर जाने का नाम है। ध्यान स्वभाव में रम जाने का नाम है। तुम्हारा ज्ञान भी तभी तुम्हारा ज्ञान होगा, जब तुम्हारे भीतर से जगेगा। अगर किसी को स्वभाव की तलाश करनी हो तो जो दूसरों ने सिखाया हो, उस सबको विदा कर दो। उसमें कई बातें बड़ी हीरे-जवाहरात जैसी लगेगी, दिल करेगा कि बचा लें। मगर जो उधार है वह हीरा भी हो तो भी नकली है।