जूते
Shoe
(पैरों की सुरक्षा के लिए)
मनुष्य लाखों वर्षों से पृथ्वी पर विचरण करता रहा है। निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि जूते का आविष्कार कब, किसने और कैसे किया। निश्चय ही पथरीली जमीन पर चलने में चोट लगने के कारण या सर्दी-गरमी महसूस होने के कारण मनुष्य को जब तकलीफ हुई होगी तो उसने पहले-पहल या तो पेड़ों की पत्तियां पैरों में लपेटी होंगी या जानवरों की चमड़ी। इतिहास ने हर किस्म के विचित्र जूते देखे हैं। एक ओर महिलाओं की जूतियों के आठ इंच ऊंचे तले भी देखे और दूसरी ओर बच्चों के बतख के आकार के जूते भी। अमेरिका में जूते के निर्माताओं ने जूते के तले खोखले बनाए और प्लास्टिक के इन तलों में पानी भर दिया। उसे पहननेवाले को लगता था कि वह पानी में चला रहा है।
प्राचीनकाल में ऋषियों को पैर में खड़ाऊ पहने बताया गया है। यह लकड़ी की होती थी। इससे पैर की कुछ रक्षा तो हो जाती थी, पर यह पूरी तरह आरामदायक नहीं थी।
जब लोग शिकार खेलने या युद्ध के मैदान में जाते थे तो अन्य अंगों की तरह पैरों की सुरक्षा का भी सवाल उठता था। तय १ लकड़ी होती थी, जिसे मजबूती से बांध लिया जाता था, ताकि, वह लकड़ी , तल में बीच में निकल न जाए। बाद में ठंड से बचाव के लिए है, देश में चमड़े के जूते बनाए जाने लगे, जिनका तला भी होता था और पर चड़ा होता था।
पहले जूते सादा होते थे। यूरोप में काफी समय बाद तक, साद ज़ का रिवाज रहा। तब एक पैर का जूता दूसरे पैर में पहना जा सकता था। इधर भारत में आभिजात्य वर्ग में लोग सुंदर नक्काशीदार जूते पहनते थे। उधर यूरोप में भी तरह-तरह के फैशन के जूते पहनने का रिवाज चल पड़ा। पंद्रहवीं सदी में इंग्लैंड में नुकीले जूतों का रिवाज चल पड़ा। कल लोगों के जूतों का अगला हिस्सा इतना नुकीला और लम्बा होता था कि वह पहननेवालों के घुटनों तक जा लगता था।
तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने असाधारण रूप से लम्वे इन नुकीले जूत पर रोक लगा दी। इसके बाद लोग सामान्य जूते पहनने लगे।
इसी तरीके की एक कथा जूतों की एड़ियों के बारे में हैं। फ्रांस का राजा लुई चौदहवां ठिगने कद का था। जब वह अपने समानेवाले को लम्बा पाता था तो से बड़ा गुस्सा आता था। उसने शाही मीची को आदेश दिया कि वह उसके जूतों के नीचे ऊंचा तला लगा दे, ताकि वह औरों के बराबर हो जाए। इसके बाद ऊंची एड़ी के जूतों का रिवाज प्रारम्भ हो गया। विशेष रूप से महिलाओं में ऊँची एड़ी के जूतों या सँडलों का चलन बढ़ गया।
हर प्रकार के फैशन की अति जब हो जाती है तो लोग उससे ऊबकर सामान्य फैशन पर आ जाते हैं। ऊंची एड़ी के जूते-चणलों की भी अति हो गई। सत्रहवीं सदी के अंत तक महिलाएं इतने ऊंचे जूते या सैंडल पहनने लगीं कि उनकी रास्ता चलना भी कठिन हो जाता था। कई तो गिर जाती थीं। अतः कई के चलते समय सहारा देने और गिरने से बचाने के लिए नौकरानियां साथ में चलती थीं।
जब रबर का आविष्कार हो गया तो जूतों पर भी इसका असर पड़ा। पहले-पहल ब्राजीलवासियों ने इसके गुणों के बारे में जाना। उन्होंने गीले रबर को अपने पैरों में चिपकाकर उसे सुखाना प्रारम्भ कर दिया। इससे उन्हें चलने में आराम मिलता था।
बाद में यूरोप के यात्री रबर को अमेरिका से यूरोप ले गए। सन् 1700 में जोसेफ प्रीस्टले ने रबर से पेंसिल का लिखा मिटाने में सफलता पाई। बाद में वेट वेबस्टर नामक न्यूयार्कवासी ने सन् 1882 में जूतों के तलों पर रबर लगाकर उसका हासिल किया।
सन् 1844 में चार्ल्स गुड ईयर ने रबर की वल्कनाइजेशन प्रक्रिया का आविष्कार किया और रबर को कपड़ों या जूतों में इस्तेमाल करना आसान हो गया। सन् 1868 में नए प्रकार के जूते बनाए जाने लगे,
जिन्हें स्नीकर्स कहा जाता था। लोग इन्हें पहनकर टेनिस खेलते थे। ये इतने महंगे थे कि सिर्फ धनवान् लोग ही खरीद सकते थे। धीरे-धीरे इनके दाम कम होते गए और नए-नए रंगों व डिजाइनोंवाले जूते बाजार में आते गए।
धीरे-धीरे लोगों की चाहत हुई कि मजबूत भी हों और मुलायम भी, ताकि पैरों पर जोर न पड़े। लोग बेहतर तला बनाने में जुटे रहे। बिल बावरमैन ने अपने नाइक शू कारखाने में स्थित प्रयोगशाला में अनेक प्रकार के तले बनाने के लिए प्रयोग किए। एक दिन रविवार की सुबह वह नाश्ता कर रहा था, तभी उसने वेफल आयरन देखा। काफी देर तक वह सोचता रहा। जब उसकी पत्नी चली गई तो उसने कृत्रिम रबर और वेफल आयरन को जोड़ा। अगले ही दिन, अर्थात् सोमवार को उसने वेफल तला तैयार कर दिया, जो पहले से बेहतर था। जॉगिंग करनेवाले लोग अगले साल लाइक के वेफल जूते पहनकर जाने लगे।
जब लोगों ने अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष या चंद्रमा पर चलते हुए देखा तो उन्हें लगा कि ये तो कंगारू की तरह उछल रहे हैं। लोगों की इच्छा देखकर एक जूता कंपनी ने ‘कंगारू’ नामक ब्रांड के जूते तैयार कर दिए। इन्हें पहनकर उछलना व्यक्ति के लिए आसान हो जाता है।