हिन्दू धर्म में शीतला को माता क्यों कहते हैं?
Hindu Dharam mein Shitla ko Mata Kyo kahte hai?
चेचक शब्द का अक्षरार्थ क्या है? भारत के सभी प्रान्तों में और सभी भाषा-भाषियों में इस रोग को ‘माता’ नाम से पुकारा जाता है। वास्तव में यह रोग मलेरिया, प्लेग और विचिका (हैजा) आदि रोगों की भाँति बाह्य कीटाणुओं के प्रवेश से उत्पन्न नहीं होता, इसकी उत्पत्ति अन्दर से ही होती है।
असल बात यह है कि माता के गर्भगत बालक का पालन-पोषण माता के उस रक्त के द्वारा होता है, जो कि मासिक रजःस्राव के रूप में प्रतिमास निकला करता है। गर्भ हो जाने पर ऋतु क्यों नहीं होते, इस सम्बन्ध में चरक संहिता में लिखा है-
ततस्तदधः प्रतिहतमूर्ध्वमागतमपरां चापचीयमानमपरेत्यभि
धीयते शेषं चोर्ध्वान्तरमागतं पयोधरावभिप्रतिपद्यते। (बृहन्निघण्टु रत्नाकर-4)
अर्थात ‘गर्भ ठहर जाने पर रजःस्राव की गति नीचे की ही ओर रुक जाती है, तब वह ऊपर की ओर ‘अपरा’ नाम की नाडी द्वारा बालक के शरीर-निर्माण में खर्च होने लगता है और शेष भाग ऊपर की ओर दोनों स्तनों में भर जाता है।’
गर्भ होते ही मासिकधर्म बन्द हो जाता है। कल तक जो अपवित्र रज बह निकलता था, गर्भ के दिनों में वही रक्त बालक के शरीर के निर्माण में प्रधान सामग्री का काम देता है। बालक के उत्पन्न हो जाने पर भी कुछ दिन तक रजःस्राव बन्द रहता है। उस वक्त वह रज दुग्ध रूप में परिणत होकर बालक की पुष्टि में व्यक्त होता रहता है। वाग्भट संहिता में लिखा है-
गर्भस्य नाभी मातश्च हदि नाडी निबध्यते।
यया स पुष्टिमाप्नोति केदार इव कल्यया।। (अष्टांग हृदय, शारीरस्थान-1/58)
अर्थात् ‘गर्भस्थ बालक की नाभि और माता के हृदय का एक नाड़ी से सम्बन्ध रहता है, जिसके द्वारा बालक पुष्ट होता है, जैसे जल कुल्या से खेत सींचा जाता है।’
कहना न होगा कि प्रत्येक मनुष्य की अपनी देह माता के ही उस रक्त का परिणाम है। अतः जब खान-पान के तारतम्य से अथवा ऋतु के प्रकोप से (जिसे आयुर्वेद शास्त्र में ‘मिथ्याहार विहार’ के नाम से स्मरण किया गया है) जन्म के बाद हमारे शरीर में ओतप्रोत माता का वह रज शारीरिक विद्युत् से उपद्रुत हो उठता है, तो उस समय समस्त शरीर में कष्ट और हृदय आदि मर्म अंगों में विस्फोट हो जाता है।
चूँकि इस रोग का पिता के वीर्य से कुछ सम्बन्ध नहीं, अपितु यह तो माता के खराब रज के प्रकोप से ही उत्पन्न होता है। अत: इस रहस्य को सहसा समझ लेने के लिए महर्षियों ने इसका नाम ही ‘माता’ रख छोड़ा है। इसलिए ‘माता’ इस नाम में ही उक्त रोग का समस्त रहस्य छुपा है।
शीतला का उद्गम स्थान
आयुर्वेद शास्त्र के सर्वस्व श्री धन्वन्तरि महाराज के स्वकृत शीतलास्तोत्र में इस रोग का बड़ा ही मार्मिक विवेचन किया गया है-
मृणालतन्तुसदृशीं नाभिहन्मध्यसंस्थिताम्।
यस्त्वां चिचिन्तयेत् देवीं तस्य मृत्युन जायते।।
अर्थात् ‘गर्भस्थ बालक की नाभि और माता के हृदय के मध्य प्रदेश में स्थित कमल के तन्तु के समान (जिस) अति सूक्ष्म (नाड़ी के द्वारा बालक का पोषण हुआ, है उस) शीतलादेवी का, जो पुरुष विशेषतया चिन्तन करता है, उसकी कभी (शीतला द्वारा) मृत्यु नहीं होती।’
नाभिचक्र और हृदयचक्र के मध्य में जो धमनियों द्वारा रक्त का आदान-प्रदान व्यापार चलता है, वही स्थान उक्त रोग का प्रधान केन्द्र है। कमलनाल के बीच से निकलने वाले अतीव सूक्ष्म तन्तुओं के समान जो रुधिरवाहिनियों, शिराओं का जाल बिछा है, उसको जान लेने पर उक्त रोग की चिकित्सा में बहुत सुगमता हो जाती है। यही कारण है कि भारतीय चिकित्सा में ‘माता’ रोग में औषधोपचार को महत्त्व नहीं दिया गया, अपितु वैज्ञानिक उपचारों और तद् धार्मिक अनुष्ठानों पर ही अधिक बल दिया गया है, क्योंकि औषधियाँ तो बाह्यरोग के कीटाणुओं के विनाश में ही समर्थ हैं। समस्त शरीर में व्याप्त मातृ-रजोमय विकार को दूर करने की औषधियों में वह सामर्थ्य कहाँ?
माता के मुख्य भेद
ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा ये सात प्रधान माताएँ हैं। इनमें ब्राह्मी आदि का स्वभाव, स्वरूप स्वनामानुसार सौम्य या उग्र निश्चित किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उक्त रोग प्रधानतया सात प्रकार का होता है। इनमें चार के आक्रमण ऐसे कहे जा सकते हैं कि जिनमें रोगी को कोई खास खतरा नहीं होता, परन्तु कौमारी, वाराही और चामुण्डा का आक्रमण खतरनाक है और इन तीनों में भी खासकर चामुण्डा का आक्रमण तो सर्वाधिक भयावह होता है। कौमारी के आक्रमण में एक बार विस्फोट दीख कर पुनः विलुप्त हो जाता है। नाभि से अधोभाग में विस्फोट अधिक मात्रा में रहता है, तन्द्रा प्रायः बनी रहती है। वाराही का आक्रमण बड़ी ही मन्थर गति से होता है, इसीलिए इसे ‘मन्थज्वर’ भी कहते हैं। केवल कण्ठ के आस-पास बड़ी सूक्ष्म मात्रा में विस्फोटक रहता है, जो सात दिन से लेकर पूरे चालीस दिन तक रह सकता है। इसमें तन्द्रा हर समय बनी रहती है, बीच-बीच में मूर्छा भी होती है। इसमें ज्वर रहते इतना खतरा नहीं जितना कि अन्तिम दिनों में ज्वर समाप्त होते हुए हो सकता है।
चामुण्डा के आक्रमण में तो सर्वांग की कौन कहे, जिह्वा और नेत्रों में भी विस्फोटक का प्रादुर्भाव होता है। ठीक उपचार न होने से यदि मृत्यु नहीं, तो रोगी विक्षिप्त, विकलांग और अन्धा तक प्रायः अवश्य हो सकता है।