हिन्दू धर्म में कुश का महत्व क्यों?
Hindu Dharam mein Kusha ka Mahatva kyon hai?
धार्मिक अनुष्ठानों में कुश (दर्भ) नामक घास से निर्मित आसन बिछाया जाता है। पूजा-पाठ आदि कर्मकाण्ड करने से व्यक्ति के भीतर जमा आध्यात्मिक शक्ति-पुंज का संचय कहीं लीक होकर अर्थ न हो जाये अर्थात् पृथ्वी में न समा जाये, उसके लिए कुश का आसन विद्युत् कुचालक का कार्य करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युतप्रवाह पैरों के माध्यम से शक्ति को नष्ट नहीं होने देता है। कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्रजप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। धर्मशास्त्र में कहा गया है- नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमाजते।
अर्थात् ‘कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झड़ते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा (हार्ट अटैक) नहीं होता।’
उल्लेखनीय है कि वेदों में कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया गया है।
कुश का आसन क्यों?
कुश (दर्भ) नान कण्डक्टर पदार्थ है। यह विद्युत-संक्रमण में बाधक है। पार्थिक विद्युतप्रवाह पाँवों के मार्ग में मानवपिण्ड में संचित आध्यात्मिक शक्ति को खींचकर विनष्ट कर देता है। उसकी रोकथाम के लिए पाँवों के नीचे आसन बिछाना इसका वैज्ञानिक आधार है।
कुश-धारण का मुख्य प्रभाव वेदों में आयुष्य-वृद्धि एवं दूषित वातावरण को विनष्ट करना बतलाया गया है। अत: इसे धार्मिक कार्यों में जल व अन्य पदार्थों के पवित्रीकरण के लिए पहना जाता है।
जप, पूजा-पाठ अनुष्ठान के समय प्राप्त संचित शक्ति की रक्षा आसन एवं पाँव में खडाऊँ पहनकर ही की जाती है। अत: यदि हाथों द्वारा शरीर में प्रविष्ट होने वाले ‘ईथर’ से आत्म-रक्षा न की जाये, तो इसका मस्तिष्क व हृदय पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हाथ द्वारा शक्ति-पुंज ‘अर्थ’ न हो जाये, इसलिए हाथ में भी कुश-मुद्रिका धारण करने का विधान रखा गया है। अगर गलती से हाथ जमीन पर पड़ भी जाये, तो पृथ्वी से ‘कुश’ का ही स्पर्श होगा, हाथ का नहीं।
जिस कुश का मूल सुतीक्ष्ण हो, जिसमें पत्ती हो, अग्रभाग कटा न हो और हरा हो, वह देव तथा पितृ दोनों कार्यों के लिए उपयुक्त होता है।
‘कुश’ उखाड़ने से पूर्व स्नान आदि से निवृत्त होकर, फिर पूर्वाह्न में दर्भस्थलपर जाकर पूर्व या उत्तराभिमख बैठकर निम्नलिखित मंत्र पढ़ें और ‘हुँ फट’ कहकर दाहिने हाथ से एक बार में कुश को जड़ सहित उखाड़ना चाहिए।a