साँप भी मर जाए लाठी भी न टूटे
Saanp bhi mar jaye aur Lathi bhi na Tute
रविवार का दिन था। घर में सब लोग एक साथ बैठकर नाश्ता कर रहे थे। तभी दादाजी ने अमर के पापा से कहा-“बेटा, कल गाँव से खबर आई थी कि तुम्हारे बड़े भाई रामदास का पड़ोसी के साथ किसी बात पर काफी ज्यादा झगड़ा हो गया है। तुम नाश्ता करके अभी गाँव के लिए रवाना हो जाओ। बेटा, दोनों तरफ से समझा-बुझाकर राजीनामा करा देना। ध्यान रखना कि साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे।”
ठीक है बाबूजी, आप बिलकुल चिंता न करें। मैं सारे मामले को शांति से निपटा दूंगा।” अमर के पापा ने कहा। अमर और लता भी बैठे हुए सारी बातें सुन रहे थे। दादाजी, आपने साँप और लाठी वाली बात क्यों कही?” लता ने पूछा। बेटा, जब हम चाहते हैं कि कोई काम बन भी जाए और किसी तरह का नुकसान भी न हो, तब ऐसा ही कहते हैं। यह एक कहावत है।” दादाजी ने समझाते हुए कहा।
तब तो इसके पीछे भी जरूर कोई कहानी होगी। सुनाओ न दादाजी!” अमर ने आग्रह किया। “क्यों नहीं बेटे! तुम्हें इसके बारे में कहानी सुनाता हूँ, सुनो!” दादाजी ने कहानी शुरू करते हुए कहा-“एक गाँव में एक सूखा कुआँ था। लोग उसे ‘सर्पकुआँ’ कहते थे। असल में उस गाँव में थोड़े दिनों बाद किसी-न-किसी घर में साँप निकल आता था। लोग लाठी लेकर साँप को मार देते थे और उसे सूखे कुएँ में डाल देते थे। इसलिए वह कुआँ मरे हुए साँपों का कब्रिस्तान बन गया था। गाँव की औरतें कुएँ की परिक्रमा करके नागदेवता की पूजा करती थीं। वे प्रार्थना करती थीं कि उनके घरों में साँप न निकले। जब कोई बच्चा बीमार पड़ जाता था और दवा से ठीक नहीं होता था, तब घर की औरतें कुएँ पर दीपक जलातीं और कुएँ में दूध डालकर नागदेवता से क्षमा माँगती थीं। उनका विश्वास था कि उनके मर्द लोगों द्वारा निर्दोष साँपों को मारने के कारण ही उनके मासूम बच्चे बीमार । पड़ जाते थे।” कहते-कहते दादाजी रुक गए। । “दादाजी, आप रुक क्यों गए? फिर क्या हुआ?” लता ने पूछा।
दादाजी बोले-“ गाँव के लोग इस बात से डरते थे कि इधर-उधर निकलने वाले साँप उनके बच्चों को न काट लें। इसलिए साँप देखते ही वे उसे लाठी से पीट-पीटकर मार डालते थे। एक दिन शाम के समय चौपाल पर गाँव के लोग बैठे हुए इस बात पर विचार कर रहे थे कि आए दिन निकलने वाले साँपों से कैसे छुटकारा पाया जाए? किसी ने सलाह दी। कि गाँव में हवन-यज्ञ करवाया जाए और नागदेवता से क्षमा माँगी जाए कि वे गाँव छोड़कर चले जाएँ। किसी और ने कहा कि जहाँ भी साँप का बिल नजर आए, उसे पत्थरों से भरकर बंद कर दिया जाए। कोई कह रहा था कि सँपेरों को बुलाकर साँपों को पकड़वा दिया जाए। किसी ने तो यहाँ तक मशवरा दे दिया कि घरों में नेवले पाले जाएँ ताकि वे साँपों से लड़कर उन्हें मार दें।
“इस तरह लोग अपनी-अपनी राय प्रकट कर रहे थे। तभी पास के घर से शोर की आवाज आई-‘साँप-साँप! मारो-मारो!’ यह सुनकर सब लोग उधर दौड़ पड़े। तीन-चार तगड़े नौजवान लाठियाँ लेकर दौड़े। एक ने पूछा-“कहाँ है साँप?’ उस घर में रहने वाली औरत ने डरते हुए कहा‘उधर है, पलंग के नीचे। बहुत लंबा और मोटा है। तभी एक बुजुर्ग ने कहा-‘बेटे, ध्यान से वार करना। साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे!’ फिर घर के अंदर से लाठी चलाने की आवाज आने लगी। थोड़ी देर बाद एक नौजवान लाठी पर एक मरा हुआ लंबा साँप लटकाकर बाहर आ गया और बोला-‘लो ताऊ, साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।’ यह सुनकर लोगों ने राहत की साँस ली।” दादाजी ने कहानी खत्म की।
“दादाजी, इसका मतलब यह हुआ कि मुसीबत से छुटकारा पाने के | लिए हमें इस प्रकार काम करना चाहिए कि हमें कोई नुकसान भी न हो।” अमर बोला।