न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी
Na Rahega Bans na Bajegi Bansuri
एक दिन पड़ोस में रहने वाले गिरधारीलाल जी दादाजी के पास आकर बैठ गए। कुछ उदास लग रहे थे। दादाजी ने पूछ लिया-“क्या हुआ गिरधारी? कुछ परेशान दिखाई दे रहे हो ।”
“क्या बताऊँ, बाबूजी ! मेरा बेटा चमन हर वक्त टी०वी० देखता रहता है। पढ़ाई-लिखाई नहीं करता। उसकी नजर भी कमजोर हो गई है। उसे बहुत समझाया, परंतु वह मानता ही नहीं। समझ में नहीं आता क्या करूं ?” गिरधारीलाल ने अपनी समस्या बताई।
“अरे, इसमें परेशान होने की क्या बात है? टी०वी० को डिब्बे में बंद करके रख दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी ।” दादाजी ने समझाया। यह सुनकर गिरधारीलाल का चेहरा खिल गया। “हाँ, बाबूजी! आपकी सलाह बिलकुल ठीक है। आपने तो मेरी सारी परेशानी दूर कर दी। आज मैं ऐसा ही करूंगा। अच्छा तो अब मैं चलता हूँ। प्रणाम!” यह कहकर गिरधारीलाल चले गए। दादाजी के पास बैठे हुए अमर और लता ये बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। लता ने दादाजी से पूछा-“दादाजी, आपने गिरधारी अंकल से ऐसा क्यों कहा कि न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी ?” “बेटा, इस कहावत का मतलब है कि किसी समस्या को सुलझाने के. लिए उसकी जड़ को ही नष्ट कर देना चाहिए।” दादाजी बोले। । “तो फिर इसकी कहानी सुनाओ न, दादाजी!” अमर ने जिद की।
“अच्छा बेटा, सुनो!” दादाजी ने कहानी सुनाना शुरू किया एक जंगल में भील लोग रहते थे। जंगल में बाँस के पेड़ लगे हुए थे। भील लोग बाँस का उपयोग करके तरह-तरह की वस्तुएँ बनाते थे, जैसे टोकरी, पंखा, बाँसुरी आदि। इन चीजों को वे पास के गाँवों में बेचकर अपना गुजारा करते थे। एक दिन भीलों के सरदार के घर एक सुंदर कन्या पैदा हुई। फिर छठवें दिन धूमधाम से उसके जन्म की छठी मनाई गई। उस दिन ढोलक और बाँसुरी की धुन पर खूब नाच-गाना हुआ। अचानक नन्ही कन्या जोर-जोर से रोने लगी। जब नाच-गाना और बाँसुरी की धुन बंद हुई, तो कन्या भी चुप हो गई। “ एक दिन नन्ही कन्या गहरी नींद में सो रही थी।
थोड़ी देर बाद बाहर बाँसुरी की आवाज गूंजने लगी। उसी समय नन्ही कन्या की नींद टूट गई और वह जोर-जोर से रोने लगी। भीलों के सरदार ने इस बात को नोट किया कि जब भी बाँसुरी बजने की आवाज सुनाई देती, तभी उसकी नन्ही बेटी जोर-जोर से रोने लगती। बाँसुरी की आवाज बंद होते ही वह चुप हो जाती थी। सरदार की समझ में आ गया कि उसकी बेटी बाँसुरी की आवाज से डरती थी। इसलिए वह रो पड़ती थी। ” कहते-कहते दादाजी चुप हो गए।
फिर क्या हुआ, दादाजी?” अमर ने पूछा।
फिर सरदार ने अपने कबीले के लोगों को आदेश दिया कि कोई बाँसुरी नहीं बजाएगा। उसने बाँस के जंगल में आग लगवा दी और लोगों की सारी बाँसुरियाँ भी आग में जला दीं। फिर वह निश्चित हो गया और बोला-‘अब कोई डर नहीं। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। अब मेरी बेटी को बाँसुरी की आवाज सुनाई नहीं देगी।’ उस दिन के बाद न तो बाँसुरी की आवाज गूंजी और न ही भीलों के सरदार की नन्ही बेटी रोई।”
कहते-कहते दादाजी ने कहानी पूरी की। लता बोली-“दादाजी, कुछ दिन पहले हमारे स्कूल के सामने खोमचे वाले खड़े होते थे। वे कटे हुए फलों की चाट, पकौड़े, मिठाइयाँ वगैरह बेचते थे। इन्हें खाने से कई बच्चे बीमार हो गए थे। फिर प्रिंसिपल सर ने उन्हें वहाँ से हटा दिया। अब न रहा बाँस और न बजेगी बाँसुरी। है। न दादाजी!”