मान न मान, मैं तेरा मेहमान
Maan ne Maan Mein Tera Mehman
अमर के पापा ऑफिस से आए और दादाजी से बोले-“बाबूजी, आज मेरे साथ एक अजीब घटना हुई। जब मैं अपनी बस के आने का इंतजार कर रहा था, उसी समय एक सज्जन मेरे पास आए और मेरा नाम पूछने लगे। मैंने अपना नाम बता दिया। फिर वह बोले-‘मैंने आपको कहीं देखा है। शायद हम पहले कहीं मिले भी हैं। हो सकता है, किसी शादी-समारोह में मिले होंगे। आपका चेहरा जाना-पहचाना है। वह सज्जन काफी देर तक बोलते रहे। लेकिन मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था। न ही हम पहले कहीं मिले थे। बस, उसी समय मेरी बस आ गई। मैं झट से अपनी बस में चढ़ गया।” | “बेटा, इसी को तो कहते हैं—मान न मान, मैं तेरा मेहमान। यानी कुछ लोग बिना जान-पहचान के ही मेहमान बनने की कोशिश करते हैं।” दादाजी बोले।
अमर और लता भी वहाँ बैठे हुए ये बातें सुन रहे थे। लता ने पूछा-“दादाजी, इसका क्या मतलब है?” “बेटा, इसका मतलब है-जबरदस्ती गले पड़ना। कुछ लोग बिना जान-पहचान के चिपकने की कोशिश करते हैं।” दादाजी ने समझाया। दादाजी, इस कहावत की क्या कहानी है? सुनाओ न!” अमर बोला। दादाजी ने बोलना शुरू किया-* एक गाँव में एक व्यापारी रहता था। वह कपड़ा बेचने का धंधा करता था। उसका नाम था चतुरसेन। वह स्वभाव से बड़ा चालाक और मतलबी था। वह ग्राहकों को अपनी लच्छेदार बातों में उलझा लेता था। हर किसी से ऐसे बातें करता था, जैसे उसकी बहुत पुरानी जान-पहचान हो। जो एक बार उसकी दुकान में चला जाता, चतुरसेन उसे कुछ-न-कुछ खरीदे बिना आसानी से उठने नहीं देता। था। इस तरह चालाकी से दुकानदारी करते हुए वह काफी अमीर हो गया था। उसका व्यापार बढ़ता जा रहा था। आसपास के दुकानदार उससे जलने लगे थे।“
चतुरसेन एक नंबर का स्वार्थी भी था। अपना मतलब निकालने या अपना उल्लू सीधा करने में वह उस्ताद था। यानी वह बहुत बड़ा चापलूस भी था। एक बार वह अपनी दुकान के लिए माल खरीदने शहर में गया। माल खरीदते-खरीदते रात हो गई। उसे समय का ध्यान नहीं रहा। गांव जाने वाली आखिरी बस भी चली गई। यह देखकर चतुरसेन थोड़ा-सा परेशान हो गया। आसपास कोई सराय और होटल नहीं था। सर्दी का मौसम था। रात बिताने की समस्या खड़ी हो गई। वह सड़क किनारे खड़ा होकर सोचने लगा। अचानक उसकी नजर सामने हलवाई की दुकान पर पड़ी। उसे एक उपाय सूझा। उसने मन-ही-मन सोचा-‘चलो, हलवाई के पास चलते हैं।
रात इसकी दुकान में ही काट लेंगे।’ यह सोचता हुआ वह सीधा हलवाई की दुकान में गया। उसने अपना सामान एक तरफ रखा और हलवाई से मलाईदार दूध देने के लिए कहा। “दादाजी कुछ देर रुककर बोले दूध पीते-पीते चतुरसेन ने हलवाई से पूछा-‘भैया, आप कौन-से गाँव के हो?’ हलवाई ने उत्तर दिया-“हम तीतर गाँव के हैं। परंतु भैया, हमने आज तक अपना गाँव नहीं देखा है। वहाँ हमारे दादा-परदादा रहा करते थे।’
हलवाई की बात सुनकर चतुरसेन ने अपना पासा फेंका और बोला-“अरे वाह, हम भी तो तीतर गाँव के हैं। यहाँ माल लेने आए थे। हाँ, याद आया, जब हम गाँव से चले थे, तो सरपंच जी ने आपका पता दिया था। उन्होंने जोर देकर कहा था कि शहर जा रहे हो तो चिंता मत करना, सीधे चंदू हलवाई के यहाँ जाना। आपकी बहुत तारीफ कर रहे थे। भैया, आप सचमुच बहुत भले आदमी हो। माल खरीदने के चक्कर में बहुत थक गया हूँ। थोड़ा आराम कर लूं। यहीं एक कोने में लेट जाऊँगा। सुबह होते ही गाँव के लिए निकल लँगा।” चतुरसेन कहता जा। रहा था। जब दुकान बंद होने का समय हुआ, तब चतुरसेन ने दीवार की तरफ एक चादर बिछाई और लेट गया। यह देखकर हलवाई ने अपने मन में सोचा-‘अच्छा चिपकू इन्सान है। मान न मान, मैं तेरा मेहमान। “
दादाजी की कहानी सुनकर अमर और लता बहुत खुश हुए। अमर बोला-“दादाजी, हमें ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिए।’