डूबते को तिनके का सहारा
Dubte ko Tinke ka Sahara
अमर और लता अपनी मम्मी के पास बैठे होमवर्क कर रहे थे। तभी वहाँ पड़ोस में रहने वाली कमला आई। उसे देखकर अमर की मम्मी ने कहा-“आओ, कमला बहन! बैठो! कहो, कैसे आना हुआ?” “क्या बताऊँ, बहन जी!” कमला ने झिझकते हुए कहा। उसने इधर-उधर देखा और धीरे से बोली-“मुझे तो कहते हुए भी शरम आ रही है। बात यह है कि नंदू के पापा को इस महीने की तनख्वाह अभी तक नहीं मिली है। अगर आप कुछ रुपये उधार दे दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी।”
“अरे, इसमें शर्म की क्या बात है? ऐसी मुसीबत तो किसी पर भी आ सकती है। तुम बैठो, मैं अभी लाती हूँ।” कहते हुए अमर की मम्मी अंदर गई और रुपये ले आई।
“ये लो कमला बहन! जब चाहो लौटा देना।” अमर की मम्मी ने कमला को रुपये देते हुए कहा।
“बहन जी, आपकी बहुत-बहुत मेहरबानी। ये तो हमारे लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसा है।” कमला ने रुपये लेते हुए कहा और चली गई। “मम्मी, आंटी ने डूबते को तिनके का सहारा वाली बात क्यों कही?” लता ने अपनी मम्मी से पूछा।
“बेटे, इसका मतलब है कि मुसीबत के समय थोड़ी-सी मदद भी बहुत बड़ा सहारा देती है।” मम्मी ने समझाया।
अमर और लता भागते हुए दादाजी के पास गए और बोले-“दादाजी, हमें डूबते को तिनके का सहारा के बारे में कहानी सुनाओ।”
दादाजी ने कहानी शुरू करते हुए कहा-“ एक तालाब के किनारे पेड़ पर एक चिड़िया का घोंसला था। उसमें चिड़िया अपने दो नन्हे बच्चों के साथ रहती थी। बच्चों ने आँखें तो खोल ली थीं, लेकिन अभी वो उड़नानहीं सीखे थे। चिडिया उनके लिए तरह-तरह का खाना लाती और अपनी चोंच से उन्हें खिलाती थी। नन्हे बच्चे अनाज के दाने और कीड़े-मकोड़े बड़े चाव से खाते थे। “जब चिड़िया अपने बच्चों के लिए खाना लाने जाती, तो बच्चे ‘चीं-चीं करते रहते। कभी-कभी बड़े शिकारी पक्षी, जैसे बाज, चील आदि उन पर नजर रखते, तब दोनों बच्चे डर के मारे घोंसले के अंदर एक कोने में छिप जाते।
“तालाब के किनारे एक साधु की कुटिया थी। साधु अपनी कुटिया के आँगन में बाजरा, चावल आदि के दाने बिखेर देता था। चिड़िया बड़ मजे से अपना भोजन खाती और बच्चों के लिए भी ले जाती। साधु का यह देखकर बड़ी खुशी होती थी। साध चिडिया के घोंसले को रखने भी करता था। जब कोई शिकारी पक्षी या जानवर उधर दिखाई देता तो, साधु उसे तुरंत भगा देता। एक दिन रोज की तरह चिड़िया अपने बच्चों के लिए खाना लाने चली गई। लेकिन वह काफी देर तक नहीं लौटी। चिड़िया के बच्चे भूख से ‘चीं-चीं करके चिल्लाने लगे। उनके चिल्लाने की आवाज सुनकर साधु अपनी कुटिया से बाहर आ गया। उसने देखा, चिड़िया के नन्हे बच्चे घोंसले से बाहर झाँकते हुए ‘चीं-चीं कर रहे थे। तभी अपनी माँ को देखने की कोशिश में चिड़िया का एक बच्चा तालाब में गिर पड़ा। वह अपने छोटे-छोटे पंखों को फड़फड़ाने लगा। उसे न तो उड़ना आता था और न ही तैरना। साधु ने जब यह देखा तो झट से एक पतली टहनी उस बच्चे की तरफ तालाब में फेंक दी। टहनी पानी पर तैरती हुई ठीक उस बच्चे के पास पहुँच गई। चिड़िया का बच्चा जैसे-तैसे उस टहनी पर बैठ गया। टहनी धीरे-धीरे तालाब के किनारे आ गई। साधु ने जल्दी से चिड़िया के बच्चे को टहनी के ऊपर से उठा लिया और बोला-‘वाह रे मालिक ! तेरा खेल है न्यारा, डूबते को तिनके का सहारा।’ इस तरह एक छोटे-से सहारे से चिड़िया के बच्चे की जान बच गई।” कहते-कहते दादाजी ने कहानी खत्म की। “दादाजी, हमें इस कहानी से यह सीख मिलती है कि जब कोई मुसीबत में हो तो अपने से जो थोड़ी-बहुत मदद हो सके, कर देनी चाहिए।” अमर ने कहा