दूध का जला छाछ भी फेंककर पीता है
Doodh ka Jala Chanch bhi phunk kar pita hai
रात के समय सब लोग एक साथ बैठकर खाना खा रहे थे। अमर के पिताजी बहुत धीरे-धीरे खाना खा रहे थे। दादाजी ने पूछ लिया-“बेटा, खाना अच्छा नहीं बना क्या? बहुत धीरे-धीरे खा रहे हो, क्या बात है?”
नहीं, बाबूजी! ऐसी कोई बात नहीं है। खाना तो बहुत अच्छा बना है। दरअसल बात यह है कि आज दफ्तर की कैंटीन में खाना खाते समय एक लोहे की कील निकल आई थी। बस, इसी डर से मैं खाना जरा धीरे-धीरे खा रहा हूँ।” अमर के पिताजी ने उत्तर दिया। । “ठीक कहते हो बेटा! दूध का जला छाछ भी फेंककर पीता है।” दादाजी ने कहा। अमर और लता भी यह बात ध्यान से सुन रहे थे। जब सभी लोगों ने खाना खालिया, तब लता ने दादाजी से पूछा-“दादाजी. यह बात समझ में नहीं आई कि दूध का जला छाछ को भी फेंककर क्यों पीता है? इसका क्या मतलब है?” दादाजी ने समझाया-“बेटे, जब कोई व्यक्ति किसी बात पर धोखा खाता है या नुकसान उठाता है, तो वह भविष्य में सँभलकर होशियारी से काम करता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि दूध का जला छाछ भी फेंककर पीता है। यह एक कहावत है।” । “दादाजी, हमें इस कहावत की कहानी सुनाइए न!” अमर ने फरमाइश की। | दादाजी बोले-“ एक बार एक व्यापारी ने अपने घर में पूजा-पाठ के लिए पंडित जी को बुलाया। पूजा समाप्त होने के बाद व्यापारी ने पंडित जी को स्वादिष्ट भोजन खिलाया। जब पंडित जी ने खाना खा लिया, तब व्यापारी की पत्नी एक गिलास गरम-गरम दूध ले आई। जैसे ही पंडित जी ने दूध का यूँट भरा, उनका मुँह जल गया। पंडित जी को बहुत दर्द हुआ। यह देखकर व्यापारी की पत्नी मन-ही-मन बहुत शर्मिंदा हुई।
“कुछ दिनों के बाद व्यापारी ने उन पंडित जी को अपने घर में हवन करने के लिए बुलाया। बाद में उन्हें बढ़िया खाना खिलाया। हलवा, पूरी, रायता, लड्डू आदि खाकर पंडित जी बहुत खुश हुए। फिर व्यापारी की पत्नी एक गिलास में छाछ ले आई। छाछ भी दूध जैसा सफेद रंग का होता है। पंडित जी को याद आ गया कि पिछली बार गरम-गरम दूध पीकर उनका मुंह जल गया था, इसलिए उन्होंने छाछ का गिलास उठाया और उसे दूध समझकर फेंक मारी और धीरे-धीरे पीने लगे। यह देखकर व्यापारी की पत्नी बोली-‘पंडित जी, यह गरम दूध नहीं, ठंडी छाछ है। यह सुनकर पंडित जी ने उत्तर दिया-‘बेटी, आप ठीक कह रही हैं।
नेकिन दूध का जला तो छाछ भी फैंक-फेंककर पीता है। पंडित जी की बात सुनकर व्यापारी और उसकी पत्नी बहुत शर्मिंदा हुए। उन्होंने पंडित जी से क्षमा माँगी।”
दादाजी ने अपनी कहानी पूरी की। अमर बोला-“दादाजी, इस कहावत से हमें यह सीखने को मिलता है कि किसी वजह से नुकसान होने पर भविष्य में सावधान रहना चाहिए।”
“हाँ, बेटा! तुमने ठीक कहा। हमें अपने जीवन में सतर्क तो रहना ही चाहिए। इससे हम व्यर्थ की परेशानी से बच सकते हैं। थोड़ी-सी होशियारी, दूर करे बीमारी!” दादाजी ने समझाते हुए कहा।