बच्चा बगल में, ढिंढोरा शहर में
Bagal me Bachha Shahar me Dhindhora
एक दिन दादाजी अपना चश्मा हूँढ़ते-ढूंढ़ते परेशान हो गए। उन्होंने एक-एक करके सबसे पूछा-“अरे भई, किसी ने मेरा चश्मा देखा है क्या? पता नहीं कहाँ रखा है! इतनी देर से परेशान हो रहा हूँ।” दादाजी की आवाज सुनकर सब लोग उनके पास आए और उन्हें देखकर अचानक हँसने लगे। दादाजी यह देखकर और परेशान हो गए। उन्हें थोड़ा गुस्सा भी आया और बोले-“अरे, तुम लोगों को हँसी आ रही है और मैं अपना चश्मा ढूँढ़कर परेशान हो रहा हूँ। क्यों हँस रहे हो तुम लोग?” फिर दादीजी आगे बढ़ीं और दादाजी को शीशा दिखाते हुए बोलीं-आप भी अजीब भुलक्कड़ हो! देखो न, चश्मा तो आपके गले में लटका हुआ है। यह भी खूब रही, बच्चा बगल में और ढिंढोरा शहर में यह सुनकर सब लोग जोर से हँस पड़े। अमर से न रहा गया और बोला-“दादाजी, यह बच्चा और ढिंढोरे का क्या मतलब है? इसकी भी कोई कहानी है क्या? बताओ न, दादाजी!”
“अच्छा तो बैठो!” दादाजी बोले-“बेटे, इनसान के साथ कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है। उसकी चीज उसके आसपास ही होती है, लेकिन उसे पता नहीं होता। उसे ढूँढ़ते हुए वह चारों तरफ शोर मचाता है। यही इस कहावत का मतलब है।” “लेकिन दादाजी, इसकी कहानी क्या है?” लता ने पूछा।
दादाजी बोले-अच्छा तो सुनो! एक गरीब औरत थी। उसका नाम था-भूलवती। वह मिट्टी के सुंदर-सुंदर खिलौने बनाती थी। उसका पति कुम्हार था। वह मिट्टी के बर्तन बनाता था, जैसे घड़ा, सुराही, हाँड़ी आदि। भूलवती मिट्टी के हाथी, घोड़े, तोते, गाय, गुड़िया आदि बनाती थी और उन्हें तरह-तरह के रंग-रोगन से सजाती थी। उसके बनाए हुए रंग-बिरंगे खिलौने बहुत सुंदर दिखाई देते थे। भूलवती और उसका पति मिट्टी के बर्तन और खिलौनों को शहर में ले जाकर बेचते थे। भूलवती का एक छोटा-सा बच्चा था। वह उसे कपड़े में बाँधकर कंधे से अपनी बगल में लटका लेती थी। सिर पर खिलौनों की टोकरी लेकर चल पड़ती थी। “ भूलवती कभी-कभी अपने काम में इतनी खो जाती थी कि वह कुछ जरूरी चीजों को भूल जाती थी। इसलिए लोग मजाक में उसे ‘भूलनदेवी’ भी कहते थे। एक बार दशहरे वाले दिन उसने अपने सुंदर खिलौने टोकरे में सजाए। अपने बच्चे को कपड़े में बाँधकर बगल में लटका लिया और खिलौनों का टोकरा सिर पर रखकर शहर की तरफ चल पड़ी। शहर में दशहरे का बड़ा मेला लगा हुआ था। देखते-ही-देखते उसके सारे खिलौने बिक गए। वह बहुत खुश हुई।
उसने पैसे गिनने शुरू किए। पाँच सौ रुपये से ज्यादा की कमाई हुई थी। वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी।
उसने खाली टोकरा अपने सिर पर रखा और अपने घर की तरफचल पड़ी। अचानक उसे अपने बच्चे की याद आई। वह बाजार में खड़ी। होकर जोर-जोर से चिल्लाने लगी-‘मेरा बच्चा! मेरा बच्चा!’ उसकी आवाज सुनकर काफी लोग जमा हो गए। अचानक भीड़ में से एक आदमी की नजर भूलवती की बगल में लटकी पोटली पर पड़ी। उसमें कुछ चीज हिलती हुई दिखाई दे रही थी। वह बोला-“अरे माई, तेरी बगल में गठरी लटक रही है। उसमें क्या है?’ यह सुनकर भूलवती को याद आ गया। हाँ, बच्चा तो उसकी बगल में ही है। उसने गठरी पर हाथ फेरा। उसका बच्चा गठरी में सो रहा था। यह देखकर भूलवती खुश भी हुई और शर्मिंदा भी हुई। वह बोली-“हाँ, मेरा बच्चा ही है।’
यह सुनकर भीड़ में खड़े लोग बोले-‘वाह भई, वाह! यह भी खूब रही। बच्चा बगल में, ढिंढोरा शहर में।’ कहते हुए लोग जोर-जोर से हँसने लगे। दादाजी की कहानी सुनकर अमर और लता बहुत खुश हुए। अमर बोला-“दादाजी, हमें खोई हुई चीज को ढूँढ़ने के लिए शोर मचाने से। पहले अपने आसपास देख लेना चाहिए। यही सीख मिलती है हमें इस कहावत से ।”