बंदर और मगरमच्छ
Bandar aur Magarmach
एक नदी किनारे हरा-भरा विशाल पेड़ था। उस पर खूब स्वादिष्ट फल लगे रहते। उसी पेड़ पर एक बंदर रहता था। बड़ा मस्त कलंदर जी भरकर फल खाता, डालियों पर झूलता और कूदता-फाँदता रहता। उस बंदर के जीवन में एक ही कमी थी कि उसका अपना कोई नहीं था। माँ-बाप के बारे में उसे कुछ याद नहीं था, न उसके कोई भाई था और न कोई बहन । जिनके साथ वह खेलता। उस क्षेत्र में कोई और बंदर भी नहीं था, जिससे वह दोस्ती गाँठ पाता। एक दिन वह एक डाल पर बैठा नदी का नजारा देख रहा था कि उसे एक लंबा विशाल जीव उसी पेड की ओर तैरकर आता नजर आया। बंदर ने ऐसा जीव पहले कभी नहीं देखा था। उसने उस विचित्र जीव से पूछा, “अरे भाई, तुम क्या चीज हो?”
विशाल जीव ने उत्तर दिया, “मैं एक मगरमच्छ हूँ। नदी में इस वर्ष मछलियों का अकाल पड़ गया है। बस, भोजन की तलाश में घूमता-घूमता । इधर आ निकला हूँ।”
बंदर साफ दिल का था। उसने सोचा कि पेड़ पर इतने फल हैं, इस बेचारे को भी उनका स्वाद चखना चाहिए। उसने एक फल तोड़कर मगर का ओर फेंका। मगर ने फल खाया, बहत रसीला और स्वादिष्ट । वह फटाफट फल खा गया और आशा से फिर बंदर की ओर देखने लगा।
बंदर ने मुसकराकर और फल फेकें । मगर सारे फल खा गया और अंत असने संतोष भरी डकार ली और पेट थपथपाकर बोला, “धन्यवाद, बंदर भाई। खूब छक गया, अब चलता हूँ।” बंदर ने उसे दूसरे दिन भी आने का न्योता दे दिया।
मगरमच्छ दूसरे दिन आया। बंदर ने उसे फिर फल खिलाए। इसी प्रकार बंटर और मगर में दोस्ती जमने लगी। मगरमच्छ रोज आता, दोनों फल खातेखिलाते, गपशप मारते। बंदर तो वैसे भी अकेला रहता था। उसे मगरमच्छ से दोस्ती करके बहुत प्रसन्नता हुई। उसका अकेलापन दूर हुआ। एक साथी मिला। दोनों मिलकर मौज-मस्ती करें तो दुगना आनंद आता है। एक दिन बातोंबातों में पता लगा कि मगरमच्छ का घर नदी के दूसरे तट पर है, जहाँ उसकी पत्नी भी रहती थी। यह जानते ही बंदर ने उलाहना दिया, “मगर भाई, तुमने इतने दिन मुझे भाभीजी के बारे में नहीं बताया। मैं अपनी भाभीजी के लिए रसीले फल देता। तुम भी अजीब निखट्टू हो अपना पेट भरते रहे और मेरी भाभी के लिए कभी फल लेकर नहीं गए।”
उस शाम बंदर ने मगरमच्छ को जाते समय ढेर सारे फल चुन-चुनकर दिए। अपने घर पहँचकर मगरमच्छ ने वह फल अपनी पत्नी मगरमच्छनी को दिए। मगरमच्छनी ने स्वाद भरे फल खाए और बहुत संतुष्ट हुई। मगरमच्छ ने उसे अपने मित्र के बारे में बताया। पत्नी को विश्वास न हुआ। वह बोली, “जाओ, मुझे बना रहे हो। बंदर की कभी किसी मगर से दोस्ती हुई है?”
मगर ने भरोसा दिलाया, “यकीन करो भाग्यवान ! वरना सोचो यह फल मुझे कहाँ से मिले? मैं तो पेड़ पर चढ़ने से रहा।”
मगरनी को यकीन करना पड़ा। उस दिन के बाद से मगरनी को रोज बदर द्वारा भेजे फल खाने को मिलने लगे। उसे फल खाने को मिलते यह तो ठाक था, पर मगर का बंदर से दोस्ती के चक्कर में दिनभर दूर रहना उसे खलने लगा। खाली बैठे-बैठे ऊँच-नीच सोचने लगी।
वह स्वभाव से दुष्टा थी। एक दिन उसका दिल मचल उठा, “जो बंदर इतने रसीले फल खाता है, उसका कलेजा कितना स्वादिष्ट होगा?” अब वह चालें सोचने लगी। एक दिन मगर शाम को घर आया तो उसने मगरनी को कराहते पाया। पूछने पर मगरनी बोली, “मुझे एक खतरनाक बीमारी हो गाई है। वैद्यजी ने कहा है कि यह केवल बंदर का कलेजा खाने से ही ठीक होगी। तुम अपने उस मित्र बंदर का कलेजा ला दो।”
मगर सन्न रह गया। वह अपने मित्र को कैसे मार सकता है? “न-न, यह नहीं हो सकता।” मगर को इनकार में सिर हिलाते देख मगरनी जोर से हाय-हाय करने लगी, “तो फिर मैं मर जाऊँगी। तुम्हारी बला से और मेरे पेट में तुम्हारे बच्चे हैं। वे भी मरेंगे। हम सब मर जाएँगे। तुम अपने बंदर दोस्त के साथ खूब फल खाते रहना। हाय रे, मर गई, मैं मर गई।”
पत्नी की बात सुनकर मगर सिहर उठा। बीवी-बच्चों के मोह ने उसकी अक्ल पर परदा डाल दिया। वह अपने दोस्त से विश्वासघात करने, उसकी जान लेने चल पड़ा।
मगरमच्छ को सुबह-सुबह आते देखकर बंदर चकित हुआ। कारण पूछने पर मगर बोला, “बंदर भाई, तुम्हारी भाभी बहुत नाराज हैं। कह रही हैं कि देवरजी रोज मेरे लिए रसीले फल भेजते हैं, पर कभी दर्शन नहीं दिए। सेवा का मौका नहीं दिया। आज तुम न आए तो देवर-भाभी का रिश्ता खत्म। तुम्हारी भाभी ने मुझे भी सुबह ही भगा दिया। अगर तुम्हें साथ न ले जा पाया तो वह मुझे भी घर में नहीं घुसने देगी।”
बंदर खुश भी हुआ और चकराया भी, “मगर मैं आऊँ कैसे? मित्र, तुम ता जानते हो कि मझे तैरना नहीं आता।” मगर बोला, “उसकी चिंता मत करो, मेरी पीठ पर बैठो। मैं ले चलूँगा तुम्हें।”
बदर मगर की पीठ पर बैठ गया। कुछ दूर नदी में जाने पर ही मगर पानी के अंदर गोते लगाने लगा। बंदर चिल्लाया, “यह क्या कर रहे हो? मैं डूब जाऊँगा।”
मगर हँसा, “तुम्हें तो मरना ही है।”
उसकी बात सुनकर बंदर का माथा ठनका, उसने पूछा, “क्या मतलब?”
मगर ने बंदर को कलेजे वाली सारी बात बता दी। बंदर हक्का-बक्का रह गया। उसे अपने मित्र से ऐसी बेईमानी की आशा नहीं थी।
बंदर चतुर था। तुरंत अपने आप को सँभालकर बोला, “वाह, तुमने मझे पहले क्यों नहीं बताया? मैं अपनी भाभी के लिए एक तो क्या सौ कलेजे है। दूं। पर बात यह है कि मैं अपना कलेजा पेड़ पर ही छोड़ आया हूँ। तुमने पहले ही सारी बात मुझे न बताकर बहुत गलती कर दी है। अब जल्दी से वापस चलो, ताकि हम पेड़ पर से कलेजा लेते चलें। देर हो गई तो भाभी मर जाएँगी। फिर मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊँगा।”
अक्ल का मोटा मगरमच्छ उसकी बात सच मानकर बंदर को लेकर । वापस लौट चला। जैसे ही वे पेड़ के पास पहुँचे, बंदर लपककर पेड़ की डाली। पर चढ़ गया और बोला, “मूर्ख, कभी कोई अपना कलेजा बाहर छोड़ता है? दूसरे का कलेजा लेने के लिए अपनी खोपड़ी में भी भेजा होना चाहिए। अब जा और अपनी दुष्ट बीवी के साथ बैठकर अपने कर्मों को रो।” ऐसा कहकर बंदर तो पेड़ की टहनियों में लुप्त हो गया और अक्ल का दुश्मन मगरमच्छ अपना माथा पीटता हुआ लौट गया।