उत्तम खेती मध्यम बान, निखद चाकरी भीख निदान
Uttam Kheti Madhyam Baan, Nikhad Chakri Bhikh Nidan
किसी जमींदार (रईस) को कहीं एक पत्थर की पटिया पड़ी मिली, जिस पर ऊपर की इबारत खुदी हुई थी। उसने लाकर पटिया अपनी बैठक के ताक में रख दी। नित्य देखते-देखते उसके मस्तिष्क में खेती की महिमा जम गई।
‘असामियों’ (किसानों) से खेत निकालकर उसने अपनी खेती शुरू कराई। पर खुद कभी खेत के नजदीक न गया। इधर-उधर की बातों में लगा रहता। खेत समय पर न जुता, न खाद पड़ी, न ठीक बोया गया, न सिंचाई हुई। नतीजा यह हुआ कि उसमें बीज-भर की पैदावार भी न हुई। “घर के धान पयाल (पुआल) में” कहावत चरितार्थ हुई। उसे अपने पर तो नहीं, उस पत्थर पर गस्सा आया। उसे उठाकर जमीन पर फेंक दिया। पत्थर उलटा पड़ा। उस ओर खुदा हुआ था-
“खेती खस्मों सेती, बेटे की आधी, नौकर की बला सेती।”
और भी कुछ कहावतें उस पत्थर पर खुदी थीं :
जो हल जोते खेती बाकी,
और नहीं तो जाकी ताकी।
उत्तम खेती, जो हर गहा,
मध्यम खेती, जो संग रहा
जो पूछेसि हर कहां ?
बीज बूड़िगे तिनके तहां।