सीख तो ताको दीजिये, जाको सीख सुहाय
Seekh To Tako Dijiye, Jako Seekh Suhay
किसी जंगल में एक पेड़ पर एक बये का घोंसला था। संध्या समय बयाबयी उसमें मौज से बैठे थे। बरसात का मौसम था। बादल घिर आए। बिजली चमकने लगी। बड़ी-बड़ी बूंदें पड़नी शुरू हुई। हौले-हौले मूसलाधार पानी गिरने लगा। पर अपने मजबूत घोंसले में बैठे होने की वजह से वे दोनों बेफिक्र थे।
इसी बीच एक बन्दर पानी से बचने को उस पेड़ पर आ चढ़ा। पेड़ के पत्ते वर्षा से उसकी रक्षा करने में असमर्थ थे। कभी नीचे जाता, कभी ऊपर आता। इतने में ओले गिरने आरंभ हुए। ठंड से बंदर किंकिंयाने लगा। बये से रहा न गया, बोला,
“मानुस के–से हाथ–पांव, मानुस की–सी काया,
चार महीने बरखा होवे, छप्पर क्यों नहिं छाया?
देखो, हम तो तमसे कितने छोटे जीव हैं, पर कैसा घोंसला बनाकर आग से रहते हैं, तुम भी हाथ-पैर हिलाते तो क्या कुछ बना न पाते?”
इस सीख पर बन्दर बेतरह बिगड़ा और लपककर एक हाथ से बये का घोंसला नोंच डाला। बया और बयी उड़कर दूसरे पेड़ की डाल पर जा बैठे। किसी देखनेवाले ने कहा :
“सीख तो ताको दीजिए, जाको सीख सुहाय,
सीख न दीजे बांदरा, बय्ये का घर जाय।“