Hindi Essay, Story on “Ninyanave Ka Pher”, “निन्यानवे का फेर” Hindi Kahavat for Class 6, 7, 8, 9, 10 and Class 12 Students.

निन्यानवे का फेर

Ninyanave Ka Pher

किसी धनी सेठ के पड़ोस में एक गरीब दर्जी रहता था। उसकी रुपए-बीस आने की रोज की मजदूरी मुश्किल से बनती थी, पर वह उतने में ही बहुत । खुश था। मियां, बीबी दो ही थे, रहने को छोटा-सा घर का मकान था। सस्ती का जमाना था। अच्छा खाते, अच्छा पहनते। जोड़ने से उन्हें कुछ मतलब न था। इधर हमारे सेठ साहब की आमदनी का कोई ठिकाना न था। लेकिन जोड़जोड़कर धरना और दौलत से दौलत पैदा करना यही उनका काम था। अपने पेट को न पूरा खाना देते, न तन को कपड़ा।

उनकी सेठानी ने एक दिन अपनी खिड़की से दर्जी और उसकी स्त्री को खूब अच्छा खाना खाते देखा। कपड़े तो दोनों को वह हमेशा ही साफ-सुथरे । पहने देखती थी। चेहरे दोनों के हरदम खिले ही रहते थे। इसके विपरीत, सेठ के पास इतनी संपत्ति होते हुए भी, वह इतने खुश न थे। कमाने और जोड़ने की फिक्र तो थी ही, ऊपर से बड़ी फिक्र यह और थी कि हमारे पीछे यह संपत्ति भोगेगा कौन? सेठानी को तो दिन रात इसी का झीखना था कि उनके अब तक कोई संतान न हुई।

सेठानी एक दिन सेठ के सामने दर्जी के सुखी जीवन की चर्चा करते हुए बोली, “मुझे ये गरीब पति-पत्नी हमसे कहीं अधिक सुखी दिखाई देते हैं। इतनी कम कमाई में इतने सुखी यह कैसे हैं?”

सेठ ने कहा, “असली बात यह है कि ये ‘निन्यानबे के फेर’ में नहीं पड़े हैं।

“निन्यानबे का फेर क्या होता है?”

सेठ ने कहा, “यों जबानी बताने से वह तुम्हारी समझ में आए न आए। इन्हें निन्यानबे के फेर में डालकर ही तुम्हें दिखा दूंगा।”

इसके बाद सेठ ने एक रूमाल में निन्यानबे रुपये बंधवाकर एक दिन रात को सेठानी के द्वारा दर्जी के आंगन में डलवा दिए। सबेरे ही दर्जी की स्त्री को रुपयोंवाला वह रूमाल मिला। उसने पति को दिखाया, खोला तो उसमें एक कम सौ रुपए निकले। दर्जी बोला, “जान पड़ता है कि कोई चील या बन्दर किसी के यहां से रूमाल में बंधे ये रुपए उठा लाया है और यह हमारे आंगन में डाल दिए हैं। लाओ, ये रुपए मैं गांव के मुखिया को दे आऊं। जिसके होंगे उसे मिल जायंगे।”

दर्जी की स्त्री बोली-“अभी ऐसी क्या जल्दी पड़ी है? कोई डुग्गी पिटेगी, कोई धन का हकदार खड़ा होगा तो ये रुपए उसे दे दिए जाएंगे, नहीं तो मानना चाहिए कि ये रुपए भगवान ने हमारे लिए ही भेजे हैं।”

दर्जी ने रुपए मुखिया के यहां दे आने का बहुत आग्रह किया, पर उसकी स्त्री न मानी। रुपए रख लिये गये।

कई दिनों बाद एक दिन स्त्री ने कहा, “आखिर तुम हमेशा ही तो कमाते रहोगे नहीं, बुढ़ापा आयगा, आंखें, हाथ काम न करेंगे, उस समय के लिए हमें अभी से थोड़ा-थोड़ा बचाकर रखना चाहिए।”

दर्जी ने जवाब दिया-“क्या जोड़ने की बात करती हो? पैसा जोड़ना दुःख जोड़ना है। बुढ़ापे में भगवान् कहां चला जाता है? जो भगवान अभी पालता है, वह बुढ़ापे में हमें भूल जायगा?”

दर्जी की स्त्री बोली, “तुम तो फक्कड़ तबियत के हो, फिर मर्द हो, तुम चाहे जैसे गुजर कर सकते हो, पर औरत के लिए तो सौ संकट होते हैं।”

दर्जी ने कहा, “आदमी की जमा-पूंजी जाते देर कितनी लगती है? रुपयों की शक्ल में इन ठीकरों का तुम्हें बड़ा भरोसा है, और भगवान का नहीं?”

“भगवान का भरोसा तो सब है ही, लेकिन रुपयों से भी दुनिया का बहुत काम चलता है। देखो, अपने बगल में ही यह सेठजी है, कितनी बड़ी हवेली खड़ी है, कितने दास-दासी इनकी हुकूमत में हैं।” ।

“तुम समझती हो कि सेठ-सेठानी बड़े सुखी हैं ! पूछो न एक दिन सेठानी से। रुपए से सब कुछ होता है तो वह एक बच्चा क्यों नहीं कर लेते? रोज ही तो गंडा-ताबीज कराती फिरती है सेठानी।”

“जो हो, मैं कहती हूं, कुछ जोड़ना जरूर चाहिए।”

“मालूम होता है कि इस निन्यानबे रुपयों ने तुम्हारे जी में जोड़ने की हवस पैदा कर दी है। इसलिए मैं इस बला को जल्दी से जल्दी घर से बाहर निकालना चाहता था।”

स्त्री अपनी हठ पर अड़ी रही और रोज की आमदनी में से कुछ-कुछ बचाकर उस निन्यानबे की पूंजी को बढ़ाने लगी। कुछ दिनों में निन्यानबे के सौ हुए तो उसे बड़ी खुशी हुई। वह मन में कहने लगी, “आज तो मेरे पास पूरे एक सौ रुपए हो गये हैं, मैं चाहूं तो चांदी के कई जेवर इन रुपयों से बनवा सकती हूं। धीरे-धीरे रुपए बढ़ने लगे और दंपत्ति का सुख घटने लगा। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में कमी होने लगी। दोनों के चेहरे भी उतने खिले नहीं दिखाई देते। चेहरों पर कुछ-कुछ चिन्ता छाई रहने लगी।”

सेठ ने एक दिन सेठानी से पूछा, “अपने पड़ोसी के हाल कहो।”

सेठानी बोली, “अब तो हमारी-सी ही दशा उनकी भी हो गई है, बेचारे निन्यानबे के फेर में पड़ गये।”

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