मन चंगा तो कठौती में गंगा
Mann Changa To Kathoti Me Ganga
रैदास भगत अपने घर के बाहर सड़क पर बैठकर जते गांठा करते थे। एक दिन उसी रास्ते, किसी पर्व के अवसर पर एक पंडितजी गंगा-स्नान को जा रहे थे। चलते-चलते उनका जूता कुछ टूट चला था। मार्ग में चमार को पाकर जूता गंठवाने खड़े हो गये। रैदास पहले किसी दूसरे का जूता मरम्मत कर रहे थे। पंडितजी बोले, “भाई, मेरा जूता जरा जल्दी गांठ दे, मुझे गंगाजी जाना है।”
रैदास ने कहा, “हाथ का पहला काम पूरा करके अभी आपका करता हूँ। बैठ जाइए। जल्दी ही हो जायगा।”
पहला काम निबटाकर रैदास मन लगाए पंडितजी के जूते की सिलाई कर रहे थे। पंडितजी बोले, “अरे, चमरू, इतना बड़ा पर्व है, हम लोग बीस-बीस कोस चलकर नहाने आए हैं, तेरे तो यह कोस भरपर गंगा है, क्या तू नहाने न जाएगा?”
रैदास काम को पूरा करते हुए बोले, “महाराज, मैं गरीब आदमी गंगा नहाता रहूं तो बालबच्चों की रोटी का ठिकाना लगना कठिन हो जाएगा।”.
पंडितजी बोले, “तू गंवार है, तुझे आज के पुण्यपर्व के फल का पता नहीं। इसलिए ऐसा कहता है। वैसे तो तेरा न जाना ही ठीक है, चमार के गंगाजी में नहाने और उस जल के छींटे दूसरों के लगने-लगाने से अशुद्धताई फैलेगी।”
रैदास ने इस ओर ध्यान न दिया और काम पूरा करके पंडितजी के आगे रख दिया। पंडितजी टेंट से निकलकर रैदास को एक पैसा देने लगे। रैदास बोला, महाराज, मैं आपसे मजरी नहीं लेना चाहता, मेरा एक कारज कर दीजिए।”
पंडितजी ने पूछा, “वह क्या?”
रैदास बोला, “यह दो सुपारी मेरी ओर से गंगाजी को भेंट चढ़ा दीजियेगा। लेकिन एक शर्त के साथ, कि गंगाजी हाथ बढ़ाकर इन्हें लें।”
पंडितजी मन में उसकी ऐंठ पर हंसे, पर रास्ता तै करने की जल्दी में तर्कवितर्क में न पड़कर सुपारियां लेकर झोले में डाल लीं। घाट पर पहुंचकर नहाएधोए, पूजा पाठ किया। वापस होने को थे कि रैदास की दोनों सुपारियां याद आई। सोचा लाओ, गंगाजी में फेंक चलें। पर रैदास के वचनों का स्मरण हुआ कि गंगाजी हाथ बढ़ाकर लें तभी देना। रैदास ने यह चीज कही कुछ ऐसे ढंग से थी कि पंडितजी उसे भूल न सकते थे। पंडितजी को विश्वास तो न था कि ऐसा संभव भी हो सकता है, पर कहने में लगता भी क्या था। गंगाजी को सुनाकर बोले, “यह रैदास की दो सुपारियां है। उसने कहा कि गंगाजी हाथ बढ़ाकर लें तो दे देना।”
जल में से उसी समय एक हाथ निकला और सादर सुपारी लेकर अन्दर हो गया। फिर तुरंत दूसरा हाथ एक सोने का सुन्दर मूल्यवान कंगन लिये निकला। साथ ही कोई कहता सुनाई दिया कि यह प्रसादस्वरूप रैदास को देना और कहना कि तुम्हारी भेंट गंगा ने सप्रेम स्वीकार की है।
इन बातों ने ब्राह्मण को अचंभे में डाल दिया। मन मैं रैदास के प्रति ईर्ष्या पैदा हुई। घर लौटते राह में रैदास का घर पडा, पर वह वहां ठहरने क्यों लगा।
कंगन को देखते ही उसके मन में लोभ आ गया था। घर पहंचते ही कंगन पाणी को दिखाया। देखकर वह खुश हो गई। ब्राहाणी को घटना भी सुनाई, पर कंगन की खुशी में ब्राह्मणी ने उधर अधिक ध्यान न दिया। वह मगन थी कि यह कंगन पाकर उसका जन्म-दारिद्र्य दूर हो जाएगा। सोने का जवाहिरात जडा कंगन, उसकी कीमत का क्या ठिकाना? ब्राह्मणी पंडित से बोली, “इसे राजा के यहां ले जाकर भेंट करो, पूरा इनाम मिलेगा। समझना चाहिए कि अब जीते जी भिखमंगी से हम लोगों का पिंड छूटा।”
पंडित कंगन-सहित दरबार में पहुंचे। राजा उस कंगन की भेंट पर बहुत खुश हुए। पंडित को एक लाख रुपया पुरस्कार-स्वरूप दिलवाकर विदा किया। कंगन रानी के पास गया। देखकर वह उस पर लट्ट हो गई। हाथ में पहनकर देखा। सबने बड़ी तारीफ की। साथ ही कहा, “महारानी का दूसरा हाथ सूना लगता है।” राजा के पास खूबर हुई कि इसका जोड़ा चाहिए। फौरन पंडितजी तलब हुए कि इसका जोड़ा लायें। अन्यथा घरबार लटवाकर देश निकाला! राजा ही तो ठहरा! न उसे खुश होते देर लगती, न नाराज होते। कहा भी है,
“राजा, जोगी, अगिन, जल, इनकी उल्टी रीत,
बचते रहिए परसराम, थोड़ी पालें प्रीत।”
पंडित घबराए-घबराए राजा के पास गये और कंगन पाने की सारी हकीकत सुनाई। राजा बोला, “रैदास से जाकर कहो, गंगाजी से इसका जोड़ा लाकर दे।”
पंडितजी लाख रुपया लिये रैदास भगत के पास पहुंचे। रुपया उसके सामने रखा और सब बीती बात सुनाई। साथ ही रोकर बोले, “भगत, किसी तरह मेरी जान बचाओ। गंगाजी के पास जाकर इसका जोड़ा लाकर दो। एक लाख तो यह लो और एक लाख जो जोड़ा लाओगे उसका मिलेगा।”
भगत ने कहा, “महाराज, रुपयों की तो मुझे कोई आवश्यकता नहीं है, यह तो आप ले जाइए। गंगा माई मजूरी में खाने भर को देती ही है, और गंगाजी तक जाने का मेरे पास समय नहीं है। मैं यों फिरता रहूं तो मेरे बालबच्चे भूखों मर जाएंगे। पर यह मैं अवश्य चाहता हूं कि आपको राजा का कोपभाजन न बनना पड़े।”
इस पर ब्राह्मण उसके सामने बहुत गिड़गिड़ाकर बोला, “तो जैसा तुम्हें उचित जान पड़े करो।”
रैदास भगत ने अपनी उसी चाम भिगोनेवाली कठौती पर कपड़ा डाला और बोले, “मन चंगा तो कठौती में गंगा।”
कपड़ा उठाते ही उसमें से चमचमाता हुआ ठीक उसी का जोड़ा कंगन दिखाई दिया। रैदास ने ब्राह्मण को देकर कहा, ‘अब आप जल्दी कीजिए।’ ब्राह्मण ने रैदास से वह लाख रुपए रखने का बहुत आग्रह किया। रैदास ने कहा, “मैं अपनी मजदूरी से सुखी हूं, संतुष्ट हूं, मुझे ज्यादा की जरूरत नहीं है।”
रैदास को लाख रुपए लौटाते देखकर ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गया। एकएक पैसे में जूता गांठनेवाला चमार लाख रुपए को ठुकराता है ! इसीसे इसमें यह करामात है।