कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे
Kuch Tum Samjhe, Kuch Hum Samjhe
एक बुढ़िया किसी रास्ते पर चली जा रही थी। उसके पास चांदी के जेवरों की एक पोटली थी। रास्ते में बुढ़िया को एक घुड़सवार मिला। बुढ़िया ने उससे प्रार्थना की कि तुम अगले पड़ाव तक मेरी पोटली अपने घोड़े पर रख लो तो मुझे कुछ सहारा मिल जाय।
घुड़सवार यह कहकर चलता बना कि मुफ्त में क्यों कोई तुम्हारा बोझा ढोयगा। कुछ दूर जाने के बाद, वह मन में पछताने लगा कि पोटली ले ली होती और नौ-दो ग्यारह हो गये होते तो बुढ़िया मेरा क्या कर लेती। अब तो सोने की चिड़िया हाथ से निकल गई। इधर बुढ़िया को खयाल हुआ कि घुड़सवार ने इन्कार कर दिया, अच्छा किया, नहीं तो गठरी लेकर चंपत हो जाता तो मैं उसे कहां खोजती फिरती?
अगले पड़ाव पर फिर दोनों की भेंट हुई। घुड़सवार ने कहा, “लाओ माई, अपनी गठरी मेरे पीछे रख दो। उस वक्त तो मैंने नहीं सोचा। बाद को मुझे खयाल आया कि इसमें मेरा जाता क्या है, घोड़े का दो-चार सेर बोझ में क्या बनता-बिगड़ता है?”
बुढ़िया ने कोई जवाब न दिया। घुड़सवार ने फिर कहा, “माई, मेरी बात तुम्हारी समझ में आई?”
इस बार बुढ़िया ने जवाब दिया, “कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे।”