कल बकरी कहां चरायेंगे?
Kal Bakri Kaha Charayega
एक गांव में दो चरवाहे रहते थे। वे दोनों रोज अपनी और गांववालों की बकरियां चराने को ले जाया करते थे। गांव के बगल में ही एक पहाड़ी थी, उसके ऊपर चरने की जगह थी, और नीचे भी। वे नित्य आपस में तय कर लेते कि आज कौन ऊपर चरायेगा और कौन नीचे?
एक दिन पहाड़ी के ऊपरवाला चरवाहा तीसरे पहर के लगभग एक बड़े पत्थर पर खड़ा होकर नीचेवाले साथी को जोर-जोर से पुकारने लगा, “यहां आओ, सुन जाओ।” नीचेवाला चरवाहा अपनी बकरियां छोड़कर ऊपर गया। उसे एक कोस के करीब का रास्ता काटना पड़ा। पहुंचने में उसका आधा घंटा लग गया। ऊपर पहुंचकर उसने पूछा, “कहो, क्या बात है?”
“कल बकरियां कहां चरायेंगे?”
“बस, इतने से के लिए ही तुमने मुझे इतना ऊपर चढ़ाया-उतरवाया? यह तो कल घर से चलते वक्त तय हो सकता था। अभी इसकी क्या उतावली थी?”
“बात मेरे मन में आई कि तुमसे पूछू और तुमको मैंने पुकार लिया।”
होने को तो दूसरा भी था चरवाहा ही, लेकिन उसमें कुछ अक्ल थी। बोला, “अरे, इस तरह मन में आई-आई बात पर आदमी दूसरों को हैरान करने लगे तो बड़ा संकट खड़ा हो जाय। तुम्हारे जब पूछने की मन में आई तो पुकारने से पहले यह भी मन में आनी चाहिए थी कि यह सवाल तुरंत हल होना जरूरी है या इसके लिए ठहरा भी जा सकता है। साथ ही दूसरे को इसमें क्या तकलीफ या आराम होगा, यह भी खयाल में आना चाहिए था। मनुष्य के मन में दो बहुत-सी बातें आती-जाती रहती हैं, पर उसे अक्ल से काम लेना होता है कि उनमें कौन कब करने लायक है और कौन न करने लायक है।”
“मैं इतना सब तो नहीं जानता।”
नीचेवाला जानता था कि उसका यह साथी निहायत बेबकूफ है। उसे अपने ऊपर ही गुस्सा आया कि उसकी पुकार पर वह इतनी दूर चलकर आया ही क्यों ?