इतनी रुई कौन कातेगा
Itni Rui Kaun Katega
बहुत पहले की बात है। किसी गांव में एक बढिया रहती थी। उस जमाने में मिले न थी, सूत चरखे पर कतता और करघे पर बुना जाता था। घर-घर चर्खे थे। वृद्धाओं का, और सहायक रूप में लड़कियों का, खास काम चरखा कातना था। उनके गुजारे के खर्च का बदला सूत की कमाई से निकल आता। सब चीजें सस्ती थी, थोड़े में गुजर हो जाता था। श्रम को पैसों के रूप में कम देखा जाता था और न आज की भांति यही था कि बैरिस्टर के एक घंटे के श्रम की कीमत दो सौ रुपये होगी और सड़क पर झाड़ देनेवाले के उतने ही समय की कीमत दो आने। यह विषमता तो थोडे ही दिनों से फैली है।
कहते हैं, कभी देवी-देवताओं का ‘पहरा’ (समय) रहता है, कभी भूतपिशाचों का। अपने-अपने पहरे में उनका जोर रहता है। उस बुढ़िया के जमाने में ‘देव-पहरा’ था। बुढ़िया अकेली घर के पांच-सात आदमियों के वस्त्रों के लायक सूत कात देती थी। जैसे चरखा घर-घर था. वैसे ही रुई भी लगभग सबके यहां ही होती थी। अधिक लोग उस समय अपने उपयोग की वस्तुए ही बोते-उपजाते थे, बिक्री के लिए तो बहत कम चीजें पैदा की जाती थीं। हां, कुछ स्थानों में वर्षा की अधिकता के कारण कपास कम होती थी, या हो ही न सकती थी। वहां बैलगाडियों पर लादकर कपास अन्यत्र से आती थी। बुढ़िया के घर मन-आधा-मन कपास होती थी. जिससे परे घर के कपड़े बन जाते थे।
एक दिन की बात; बुढ़िया ने रुई लदी हई बारह बैलगाड़ियां अपने दरवाजे के सामने से जाते देखीं। यकायक उसके दिमाग में यह विचार उठा कि इतनी रुई कौन कातेगा? उसे इसका सोच लग गया और हर एक के सामने वह कहने लगी, कौन कातेगा इतनी रुई? जिस दिन से उसके मन में यह विचार उठा, उसकी कताई बंद हो गई। नींद हराम हो गई, भख भी मारी गई। एक ही स्ट; कौन कातेगा इतनी रुई? घरवाले परेशान हो गए, बुढ़िया को यह क्या पागलपन सवार हुआ?
घरवाले गांव के एक बुद्धिमान के पास बुढ़िया को ले गए। सब बातें मालूम करके उसने समझ लिया कि बुढ़िया के दिमाग में व्यर्थ के एक विचार ने घर कर लिया है। वह जानता था कि बुढ़िया तो बुढ़िया ही, बड़े-बड़ों के दिमाग में जब कोई ऊटपटांग विचार समा जाता है तो उससे उनका छुटकारा पाना मुश्किल हो जाता है।
उसने अपने मन में एक उपाय सोचा, पर उसे बुढ़िया के घरवालों के सामने प्रकट नहीं किया। दूसरे दिन सुबह घूमता- घूमता वह उस बुढ़िया के घर पहुंचा
और प्रणाम करके उसके पास बैठ गया। इधर-उधर की कुछ बातें करने के बाद बोला, “बुढ़िया माई, तुमने सुना या नहीं?”
“क्या बेटा?” “यही आग लगने की बात!” “कहां लगी आग?”
“वह जो रुई जा रही थी न, गाड़ियों पर, उसी में आग लग गई और सारी रुई जलकर खाक हो गई।”
बुढ़िया ने सुख की सांस ली और बोली, “चलो, छुट्टी हुई, इतनी रुई कोई कब तक कातता?”
उस बुद्धिमान ने ज्ञान की अग्नि से कर्मरूपी कपास को दग्ध कर दिया।