गोबर का घड़ा और काठ की तलवार
Gobar Ka Ghada Aur Kath Ki Talwar
एक चालाक अहीर पांच सेर की एक मटकी में नीचे साढ़े चार सेर गोबर और ऊपर से खूब अच्छा आधा सेर ताजा घी फैलाकर, बेचने चला। जाड़े के दिन थे, घी पूरा जमा हुआ था। ऊपर से देखकर यह जानना मुश्किल था कि घी के नीचे और कोई चीज होगी। इसी तरह वह दो-चार बार कई लोगों को ठग चुका था। ठगी के लिए वह अपने गांव से इतनी दूर जाता जहां उसे कोई पहचानता न था। आज भी वह इसी हिसाब से घी की मटकी लेकर चला। रास्ते में उसे एक आदमी मिला, जिसके हाथ में एक चमकीली तलवार थी। ऊपर से उसने रुपहली पत्ती चिपका रखी थी। वह उस तलवार को दफ्ती के बने एक खूबसरत म्यान में रखे बगल में लटकाए चला आ रहा था। अहीर ने उससे पूछा, “कहाँ जा रहे हो भाई?”
“यह तलवार बेचने के खयाल से बाजार जा रहा है।”
अहीर ने तलवार देखने की इच्छा प्रकट की। म्यान से निकलवाकर देखने म उसने सोचा, “बी के बदले में यह खूबसूरत तलवार मिल जाए तो मेरे भाग्य खुल्न जाय। उस आदमी से कहा, “एक तलवार तो मुझे भी खरीदनी ई. लेकिन सौदा करूंगा घी बिकने पर।”
उन्लबारवाले ने पूछा, “कितना घी है तुम्हारे पास?” अहीर बोला, “पांच सेर।” “दिखाना जरा।”
ताजा अहीराना बी देख-संघकर वह खुश हो गया। सोचा, तलवार के बदले में अगर यह बी की मटकी मुझे मिल जाए तो माघ में खूब घी-खिचड़ी कटे।
अहीर से बोला, “मुझे भी तलवार बेचकर घी ही लेना है, आओ सौदा कर लें। मैं तुम्हें घी के बदले तलवार दे दंगा।”
पुराने जमाने की बात है। उस समय रुपये-पैसे का चलन नहीं था, चीज के बटरने चीज ली-दी जाती थी। दोनों ने अपने-अपने मन में सोचा कि हम जीत में हैं, सामनेवाले को उल्लू बना रहे हैं।
सौदा हो गया। घर जाकर जब दोनों ने असलियत जानी होगी तो समझ गये हॉग-“जैसा दिया वैसा पाया।”