गंवईक दाल–भात, शहरेक राम–राम
Gavaik Dal-Bhat, Sharek Ram-Ram
लखनऊ के एक लाला किसी काम से देहात में गये। एक देहाती के यहां डेरा डाला। देहाती ने लालाजी की अच्छी आव-भगत की। मोटा-महीन जो उसके घर में था, उन्हें खिलाया-पिलाया। वही देहाती कचहरी में एक दिन इस लाला को मिल गया। लाला ने देखने ही दूर से कहा, “चौधरी, राम-राम।”
देहाती ने भी मुंशीजी को सलाम किया। मुंशीजी ने न ठहरने को पूछा, न खाने-पीने को। देहाती को लाला से ऐसी उम्मीद न थी। उसने अपने एक देहाती दोस्त से, जो शहर में काफी दिनों रहा था और शहर के रीति-रिवाजों से परिचित था, लाला के इस व्यवहार की चर्चा की। उसका दोस्त बोला, तुमने नहीं सनी कहावत कि “गंवईक (गांव का) दाल-भात, शहरेक (शहर का) राम-राम?”
देहातवाले का किसी को भोजन करा देना और शहरवाले का किसी को राम-राम कर लेना समान ही समझा जाता है ! शहरी स्वार्थ वृत्ति पर व्यंग्य है।