डपोरशंख
Daporshankh
किसी आदमी ने एक देवता की बड़ी तपस्या करके एक ऐसा शंख पाया कि उससे जो मांगिए, मिलता। किसी को इसका पता चल गया और वह उसे उड़ाने के फिराक में लगा रहा। मौका पाकर उसने शंख चुरा लिया। शंखवाला अपने देवता के पास फिर पहुंचा और उसे अपना दुःख सुनाया। देवता ने कहा, “अच्छा, मैं तुम्हें एक दूसरा शंख देता हूं, पर यह डपोरशंख है। तुम सौ मांगोगे तो यह कहेगा कि दो सौ लो, पर देगा टका भी नहीं।”
“तो मैं ऐसे शंख को लेकर क्या करूंगा?”
“क्या करोगे? जिस आदमी ने तुम्हारा वह शंख चुराया है, उसी के सामने इस शंख से, जितना चाहो, मांगना। यह उसका दूना देने की बात करेगा। बस, वह आदमी तुम्हारी नजर बचाकर यह शंख ले लेगा और पहला शंख इसकी जगह पर रख देगा। तुम वह शंख लेकर वहां से तुरत अपने घर चले जाना और आगे उसे संभालकर रखना।”
उसने यही किया। पहले चोर ने इसकी नजर बचाकर वह शंख रख दिया और यह उठा लिया। यह अपना शंख लेकर चलता बना। दूसरे दिन जब चोर ने डपोरशंख से कहा, “ला, सौ रुपए”, तो वह बोला, “ले दो सौ।” कह तो दिया, पर डपोरशंख के पास देने को क्या रखा था? जब उसने कहा, “रुपए दे दो सौ”, तो शंख बोला, “अहं डपोरशंखोस्मि, बदामि च ददामि न।” (मैं तो डपोरशंख हूं। कहता हूं, देता नहीं।) जो बढ़-बढ़कर बातें करते हैं, पर कुछ करते नहीं, उन्हें लोग डपोरशंख कहते हैं।