भागते चोर की लंगोटी ही भली
Bhagte Chor ki Langoti hi Bhali
किसी बनिये के यहां एक चोर ने सेंध दी। माल-मता जो उसके हाथ आया, ढाकर बाहर ले आया। आखिरी बार बचा-खुचा सामान लेने आया तो जाग हो गई। ‘चोर के पैर कहां’-भागा। चोर नंग-धडंग सिर्फ लंगोटी पहने था। बनिरी ने सेंध से निकलते-निकलते चोर की लंगोटी पकड़ ली। लंगोटी बनिये के हाथ में रह गई, चोर निकल गया। सवेरे टोले-मोहल्लेवाले इकट्ठे हुए। क्या गया. क्या रहा, चोर किधर से आया, कैसे भागा, उसकी शक्ल कैसी थी, इत्यादि प्रश्नों की बौछार बनिये पर होने लगी। बनिया सब बातों का हूबहू बयान करता रहा। एक पड़ोसी ने कहा, “चोर अक्सर कुछ निशान छोड़ जाया करते हैं।”
बनिया बोला, “छोड़ तो नहीं गया, पकड़-धकड़ में यह लंगोटी मेरे हाथ लगी है।”
पड़ोसी ने कहा, “चलो भागते चोर की लंगोटी ही भली।”