बन में अहीर बेबाक, कचहरी में बाकी
Ban Me Ahir Bebak, Kachahri me Baki
किसी लाला ने एक अहीर को पचास रुपए उधार दिए। दो साल में उससे पचास सूद के लिए, मूल तो बाकी-का-बाकी ही रहा। तकादा करते रहे, पर वह वसूल न हो पाया। नालिश की। अहीर के नाम सम्मन पहुंचा। उसने लाला को एक दिन जंगल में पकड़कर कहा, “तुमने मुझ पर नालिश क्यों की? मुझसे हिसाब किया होता। अब तुम्हारा रह कितना जाता है? पचास तो मैं तुम्हें नकद ही दे चुका, पंसेरियों घी और मनों दूध दे चुका हूं, फिर भी तुम्हारे पचास-केपचास ही बाकी हैं ! तुम्हारे जैसों को तो ऐसी जगह मारे, जहां पानी भी न मिले। अब तुम मुझे यहां चुपके से भरपाई लिखो, नहीं तो अपनी जान की खैर मत समझना।”
लाला ने उसे एक कागज पर लिखकर दिया, “बन में अहीर बेबाक, कचहरी में बाकी।” लाला ने अपनी नालिश उठाई नहीं। अहीर ने जवाब लगाया कि मैंने सारा हिसाब चुका दिया है। उसने सबूत में वह रसीद दाखिल की। हाकिम बड़े चक्कर में पड़ा कि यह कैसी रसीद है? अहीर ने अन्त तक यह नहीं बतलाया कि मैंने लाला को इस प्रकार घेरकर यह रसीद लिखवाई थी। लाला भी साफ नहीं कहना चाहते थे, क्योंकि उसमें कई कानूनी झंझटें सामने आती थीं। लेकिन रसीद लाला की दस्तखती थी। हाकिम ने अहीर से पूछा, “यह बन में बेबाक और कचहरी में बाकी’ का मसला क्या है?”
अहीर बोला, “मैं अपढ़ क्या जानूं, कि इन्होंने इसमें क्या लिख दिया।”
अन्त में लाला को सारा किस्सा कहना पड़ा। सारा हिसाब समझने के बाद हाकिम ने लाला को कल दस रुपये की डिग्री दी। अहीर ने खुशी-खुशी दस रुपये चुकाकर अपनी जीत मानी।