आओ, बहन लड़ें
Aao Behan Lade
किसी सराय की दो भटियारिने दिन के काम से फुरसत पाने पर वक्त काटने को एक दूसरी को छेड़कर लड़ा करतीं। सांड़ सींगों से मदद लेते हैं, वे बातों लड़ती। हाथ, मुँह कमर-अंग-अंग-चमकाती। जीभ उनकी कतरनी की तार चलती। किसी पक्ष के हार मानने का तो वहां सवाल ही न था। अल शाम का खाना पकाने का वक्त आने पर उनमें से कोई आटा गूंथने के मिट्टी के कूंडे को औंधा मारती। दूसरी भी, उसी प्रकार अपना कूडा औंधा करके सुलह की झंडी दिखाती। दूसरे दिन फिर कूड़े सीधे करके लड़ाई शुरु करतीं।
एक कहती, “आओ, बहन लड़ें।”
दूसरी कहती, “लड़े मेरी जूती।”
पहली कहती, “जूती मार अपने खसम के सिर में।”
बस, फिर जंग मच जाती और सराय-भरकी भटियारिनें इकट्ठी होकर कोई इसके पक्ष में और कोई उसके, महाभारत मचा देती। इसी तरह हपनों की महीनों-ये लड़ाइयां चलतीं।
इस कहानी में सराय की भटियारिनों के लड़ने की बात है, पर आज प्रायः वे सरायें और भटियारिनें भी उठ गई हैं। किन्तु बे-बात के लड़ने की उनकी परम्परा इस सभ्य कहलानेवाले युग में भी उसी तरह जारी है। मनुष्य-मनुष्य ही नहीं, बड़े-बड़े राष्ट्र बेमतलब लड़ने लगते हैं!