Hindi Essay on “Youth Problem”, “युवकों की समस्याएँ”, Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

युवकों की समस्याएँ

Youth Problem

युवावस्था एक ऐसा समय है जहाँ पर व्यक्ति अपने जीवन का एक ही मार्ग चुनकर उस पर अग्रसर होता जाता है। युवावस्था उसके परिश्रम करने की मनोरंजन करने की और चरित्रवान बनने का समय होता है। इसलिए सारे दृष्टिकोण से युवावस्था सभी युवाओं के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण समय होता है। जीवन में जो भी व्यस्क होता है वह निश्चित तौर पर अपने युवावस्था में किए गए परिश्रम और चरित्र निर्माण के कारण होता है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि युवा वर्ग के पास कोई समस्या ही नहीं है बल्कि एक युवा बहुत सारी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं से घिरा होता है।

बूढ़े लोग भूतकाल में खोते हैं, जबकि युवा भविष्य में। बूढे स्मृतियों पर जिंदा रहते हैं जबकि युवा सपनों पर। बूढ़े व्यक्ति पारंपरिक होते हैं जबकि युवक अपना नया रास्ता बनाते हैं। इसलिए क्रांतियाँ अपनी शक्ति युवकों से लेती है और परिवर्तनों को आमतौर पर युवक ही पवित्रता प्रदान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने निर्माण के साथ ही युवाओं पर आने वाली पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए प्रयास करता रहा है। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय तंत्र को सभी लोगों की आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देने हेतु प्रयुक्त करने के लिए युवकों का वह आह्वान करता रहा है। बूढ़े व्यक्ति अपनी अनुभवी बुद्धिमानी का लोहा मनवाना चाहते हैं तो दूसरी तरफ युवक अपने लक्ष्य की प्राप्ति की आत्मविश्वासपूर्ण आकांक्षा रखते हैं।

अपनी नई आशाओं को पूर्ण करने के लिए उन्होंने यह लक्ष्य रखा होता युवावस्था में दृष्टिकोण उदार होता है। सोच लचीली, वार्तालाप ऊर्जापूर्ण और साहस से भरा हुआ होता है। वृद्ध अपने जीवनचर्या के अनसी दृष्टिकोण में सावधान और मतों में दुनियादारी वाले होते हैं। वहीं दूसरी तरफ युवा पीढ़ी समाजिक बुराइयों, राजनैतिक शोषण तथा आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं। युवावस्था बहुत भावुक होती है और राष्ट्रीय मामलों में भी उनका जुड़ाव भावुक होता है। अतः उनकी प्रतिक्रियाएँ भी भावुकतापूर्ण होती है। तरुण मानस पर बुद्धि का शमनकारी प्रभाव कम ही पड़ता है और अपनी परेशानियों और शिकायतों पर वह उग्र विरोध प्रकट करता है। मगर यह नहीं कहा जा सकता कि युवा विद्रोहपूर्ण होता है बल्कि युवा आदर्शपूर्ण होता है।

युवकों में बेचैनी एक सहज प्राकृतिक अभिव्यक्ति है। युवकों में हताशा एक गहरी बीमारी का लक्षण है न कि आदर्श के साथ मौजूद रहने वाला साधारण असंतोष युवकों के विद्रोह की हम निंदा कर सकते हैं किंतु सत्ताधिकारियों का शोषण अधिक निंदनीय है। यह उम्मीद मूर्खतापूर्ण होगा कि अपने आसपास जो घट रहा है, युवक उससे निर्लिप्त रहें। उन्हें उसमें पड़ने से रोका नहीं जा सकता। समाज को सुधारने के लिए जो बदलाव लाना चाहते हैं उसके लिए वे संघर्ष ही करेंगे। युवकों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि वह स्वतंत्र चिंतन को और अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाएं ताकि वह राजनैतिक शक्तियों द्वारा न बहकाए जा सकें।

जिस स्थिति में आज युवक हैं, उस पर तुरंत ध्यान जरुरी है। वे खर्च, बेरोजगारी और बेचैनी का सामना कर रहे हैं। उन्हें जीवित रहने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। इस समस्या की सत्यता इसी बात से स्पष्ट हो जाती। है कि पाँच में से एक पृथ्वीवासी मानव 15.24 आयु वर्ष का है। 1980 में पृथ्वी की जनसंख्या 857 मिलियम अनुमानित थी और 1991 तक वह । एक मिलियन तक पहुँच जाएगी। ये युवा समस्याएँ अफ्रीका, एशिया तथा अमेरिका के विकासशील देशों में ज्यादा महत्वपूर्ण है। अतः इस वर्ष एक उद्देश्य युवकों की स्थिति उनकी आवश्यकताएँ तथा आकांक्षाओं के बार। में निर्णयकर्ताओं तथा आम-जनता में जागरुकता पैदा करना था। युवकों के विशेष वर्ग, जैसे-युवतियाँ, ग्रामीण युवक, सीमांत समूहों में शहरी युवक, विकलांग युवक आदि इन सामाजिक समस्याओं का विशेष रूप से शिकार होते हैं। इस समस्या का समाधान करने के लिए शांति, पारस्परिक आदर तथा समझदारी के लक्ष्यों को भी प्रोत्साहन देना होगा। सभी स्तरों पर सहयोग को बढ़ावा मिले बिना ये उद्देश्य प्राप्त नहीं किए जा सकते।

युवा पीढ़ी के विद्रोह तेवर में गंभीर दूरगामी परिणाम छिपे हुए हैं। इससे जहाँ उनकी शिक्षा पिछड़ती है, वहीं कानून तथा व्यवस्था की समस्या भी पैदा होती है। हिंसा का तांडव चलता है तथा उसमें आम असंतोष भी ज्वलंत होता है। आम व्यक्ति की दिलचस्पी अपनी जान-माल की सुरक्षा में होती है ताकि शांतिपूर्ण वातावरण में वह अपने नैतिक उत्तरदायित्व निभा सकें। युवा वर्ग की ऐसी हरकतें बिल्कुल ठीक नहीं है। यह समाज में बैचैनी तथा राजनैतिक अस्थिरता पैदा करती है। युवकों का मारकाट मचाना और इस तरह अपनी इच्छा को दूसरों पर थोपने का प्रयास करना बिल्कुल ठीक नहीं है। इससे हमारा निर्दोष समाज असुरक्षित हो जाता है। रसाल ने ठीक कहा है, “जिसे हम गलत समझते हैं, उसे करने से दुनिया को उतनी पीड़ा और अलगाव नहीं झेलनी पड़ती जितनी उसे करने से, जिसे हम सही मानते हैं।” हमारा दृष्टिकोण संरचनात्मक नहीं रहा पाता, सरकार प्राणों को लेकर भी आंदोलन कुचलने से बाज नहीं आती। जबकि आंदोलनकारियों के मेल की। इच्छा नहीं होती। वास्तव में समाज में बुराई की जितनी अधिक गहरी पैठ होगी, लोगों में उसके खिलाफ चेतना पैदा करना उतना ही मुश्किल होगा। अतः राजनैतिक भ्रष्टाचार, सत्ता का दुरुपयोग तथा शोषण भले ही औपनिवेशक शासन की विरासत हो और लोग उसके आदी हो चुके हों, लेकिन नया जागरण-भले ही थोड़े लोगों को प्रभावित किया हो लेकिन उन्हें सहन नहीं कर सकता। स्पेंग्लर जैसे दार्शनिक सोच सकते हैं कि जीवन को असध्य बना देना मानव स्वभाव का अनिवार्य तत्व है, “मनुष्य हिंसक पशु है, गुणों के तमाम आदर्श तथा सब सामाजिक नैतिकवादी, जो इससे उपर उठाना चाहते हैं। मात्र ऐसे पशु हैं, जिनके दाँत टूट चुके हैं।” परन्तु मनुष्य का आचरण अधिकांश में अर्जित होता है न कि सहज परिणाम।

संयुक्त राष्ट्र ने 1985 को अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ग के रूप में मनाया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतरिम तथा दीर्घकालीन दृष्टिकोण अपनाया था। 1980 से 1984 तक तैयारी का काल माना गया। फलस्वरूप 1985 न केवल वास्तविक समारोह वर्ष बल्कि मूल्यांकन वर्ष भी बन गया। फिर उसे दीर्घकालीन उद्देश्यों के विस्तार हेतु आधार के रूप में भी प्रस्तुत होना था। सलाहकार समिति पर यह जिम्मेदारी थी कि वह वर्ष के लिए नीतियों तथा गतिविधियों के आयोजन एवं क्रियान्वयन में आम निर्देशन करे। उसने तीन स्तरों पर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर कुछ विशेष कार्यक्रम बनाए। कार्यवाही के लिए जो प्रमुखताएँ रखी गई थी उनमें, युवकों की भागीदारी का आधार विस्तृत करना रोजगार अवसर बढ़ाना, भेदभावपूर्ण रोजगार की स्थितियाँ समाप्त करना तथा शिक्षा तक सभी की पहुँच को सुनिश्चित करना शामिल था। इन प्राथमिकताओं में युवा महिलाओं का विकास में सरोकार तथा भूमिका की ओर ध्यान केन्द्रित करना, स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषाहार, परिवार नियोजन तथा अन्य कल्याण सेवाओं के लिए अंतवर्गीय सामुदायिक आधार पर गतिविधियों को बढ़ावा देना भी सम्मिलित था। कार्य योजना में, विनिर्माण तथा कानूनी उपायों के क्षेत्रों में विशेष प्रस्ताव समाविष्ट थे।

अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष की तैयारी के लिए 1983 में पाँच क्षेत्रीय बैठकें हुई। इन बैठकों में संबधित क्षेत्रों की स्थिति का विश्लेषण किया तथा एक क्षेत्रीय कार्य योजना बनायी गयी। यह जे.आर.वाई. की राष्ट्रीय कार्ययोजना के लिए एक आदर्श नमूने के रूप में प्रस्तुत होनी थी। हर सदस्य राष्ट्र से कहा गया कि वह युवा वर्ग के लिए राष्ट्रीय संयोजन, समिति गठित करे, जिसमें मंत्री, युवा तथा युवकों के प्रतिनिधि शामिल हों।

भारत में युवा-वर्ष मनाने के लिए केन्द्र सरकार के खेलकूद तथा युवा मंत्रालय द्वारा एक 26 सदस्यीय समिति स्थापित की गयी, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर एक कार्यक्रम तैयार किया. इस कार्यक्रम में विचार आयोजित किए। राष्ट्रीय सेवा योजना (एन.एस.एस.) तथा नेहरू युवा केन्द्रों के लिए एक विशेष कार्यक्रम तैयार किया गया था।

मनुष्य में आज इतना आत्मविश्वास है, जितना पहले कभी नहीं था। विज्ञान की विजयों ने मनुष्य की गरिमा में चार चाँद लगा दिए हैं। उसके विकास की रफ्तार इतनी तेज है कि हर क्षण हम विद्यमान व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था की कमजोरियों को बहुत जल्द पकड़ लेते हैं। यही बात कल्पनाआ के बारे में है। हमारे दैनिक जीवन में हम आसान और सुखासीन जीवन की ओर बढ़ रहे हैं।

मनोरंजन और बहलाव के ढेर सारे साधन हमारे पास हैं। एक युवक का ध्यान कई मामले में अपनी ओर खींचते हैं और वह अपने अध्ययन में एकाग्र नहीं हो पाता। फलस्वरूप उनका बौद्धिक गठन कुछ अजीब सा हो गया है। प्रमाण के अभाव में निर्णय के रोके रखने का प्रशिक्षण उन्हें नहीं मिला होता और इलहामी निश्चितता के साथ बोलने वालों द्वारा वे अक्सर गुमराह हो जाते हैं। 20वीं सदी में कई नारे उछले हैं। “पूँजीपतियों को खत्म करो तब जो बचेंगे उसका शाश्वत आनंद का भोग करोगे” या “यहूदियों को खत्म करो तब हर कोई पुण्यात्मा हो जाएगा।” इसे खूखार बकवासवादी कहा जा सकता है। अन्यथा वे शिक्षा के विशुद्ध मानदंडो को स्वीकार नहीं करते। फलस्वरूप परीक्षा में कठिन प्रश्नों के खिलाफ हड़ताल, अनुशासन कायम करने के लिए लगाए प्रतिबंधों तथा बस सेवा जैसी सुविधा न मिलने के खिलाफ हडताल आम बात हो गयी है।

उनकी अवचेतन मन में बेरोजगारी का डर समाया हुआ है। यदि शिक्षा उन्हें समाज में रोजगार नहीं दे पाती है तो विद्यालय का जीवन समाप्त होने पर वे अवश्य ही कुंठाग्रस्त होंगे। जब शिक्षा सोद्देश्य और सार्थक नहीं होगी तो मानव चिंतन कबाड़खाने में फेंक दी जाएगी। अतः छात्र शिक्षा उन्हें उनके अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक कराती है तो वे सोचते हैं कि जो अधिकरण उन्हें रोजगार मुहैया नहीं करा पाते, वे नकारा हैं। यहीं विद्रोह के कीटाणु पैदा होते हैं। एक विकासशील लोकतंत्र में राजनेता अपने निहित स्वार्थ नहीं छोड़ पाते। उनके लिए राजनीति सत्ता एक छलांग लगाने की कमानी है। उनके पास कमाने लायक कोई निष्ठाएँ नहीं होती। यदि वे सत्ता में आ भी जाते हैं तो चरितार्थ करने के लिए कोई आदर्श उनके पास नहीं होता। अतः वे उन युवकों का शोषण स्वार्थवश करते हैं जो चिंतन में अपरिपक्व होते हैं।

इन सब बातों के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छात्र कोई ‘सामाजिक वर्ग’ नहीं है। यदि कोई सिद्धांत विद्यार्थियों की स्थिति को उन मानदण्डों के अनुसार विश्लेषित करना चाहता है जोकि आर्थिक हित हैं, या तो शरारत होंगे या भोलापन। सच्ची शिक्षा प्रभाव में बौद्धिक तथा भावनात्मक संसाधनों का संशय करती है। फिर समाज के एक रहस्य के रूप में छात्रों के सामने आने वाली समस्याओं की ओर उन्हें मोड़ती है। इस तरह छात्र समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य को हर तरह से पूरे कर सकता है। प्रथम तो अपने लिए किसी पक्षपातपूर्ण अनुग्रह की खोज करें, जिसमें सामाजिक जीवन में विकृति पैदा होती है और व्यक्तियों को कष्ट उठाने पड़ते हैं। दूसरे, सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण करके वह असहनीय रूपांतर के उपाय अपना सकता है। विद्यार्थी अपने आपको दहेज, नग्न शोषण तथा समाज में पैठी हुई आर्थिक विषमता जैसे अवरोधक बुराइयों के खिलाफ खड़ा करें। इस तरह उनकी शक्तियाँ उपलब्धियों के लिए क्रियाशील एवं प्रणालीबद्ध हो सकती है।

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