वृक्षों का महत्त्व
Vriksho Ka Mahatva
हमारी सारी संस्कृति वनप्रधान है। ऋग्वेद, जो हमारी सनातन शक्ति का मूल है, वनदेवियों की अर्चना करता है। मनुस्मृति में वृक्षविच्छेदक को बड़ा पापी माना गया है। उसके लिए दंड का विधान किया है। मत्स्यपुराण में कहा गया है, जो आदमी वृक्षों को नष्ट करता है, उसे दंड दिया जाए। तालाबों, सड़कों या सीमा के पास वृक्षों को काटना बड़ा गुरुतर अपराध था। उसके लिए दंड भी बड़ा कहा रहता था। उसमें कहा गया है कि जो वृक्षारोपण करता है वह तीस हजार पितरों का उद्धार करता है। अग्निपुराण भी वृक्षारोपण पर जोर देता है। वृक्षों का आरोपण स्नेहपूर्वक और उनका परिपालन पुत्रवत करना चाहिए। पुत्र और तरु में भी भेद है, क्योंकि पुत्र को हम स्वार्थ के कारण जन्म देते हैं, परंतु तरुपुत्र को तो हम परमार्थ के लिए ही बनाते हैं। ऋषि-मुनियों की तरह हमें वृक्षों की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि वृक्ष तो द्वेषवर्जित है। जो छेदन करते हैं, उन्हें भी वृक्ष छाया, पुष्प और फल देते हैं इसलिए जो विद्वान पुरुष हैं, उनको वृक्षों का आरोपण करना चाहिए और जल से सींचना चाहिए। हमारी संस्कृति में जो सुंदरतम और सर्वश्रेष्ठ है, उसका उद्भव सरस्वती के तट के वनों में हुआ। नैमिषारण्य के वन में शौनक मुनि ने हमको महाभारत की कथा सुनाई। महाभारत आत्मशक्ति का स्रोत है। हमारे अनेक तपोवनों में ही ऋषि-मुनि वास करते थे, आजीवन अपने संस्कार, आत्मसंयम और भावनाओं को सुदृढ़ बनाते थे। हमारे जीवन का उल्लास वृंदावन के साथ लिपटा हुआ है।