Hindi Essay on “Vidyarthi ka Dayitva ”, “विद्यार्थी का दायित्व ”, for Class 10, Class 12 ,B.A Students and Competitive Examinations.

विद्यार्थी का दायित्व 

Vidyarthi ka Dayitva 

 

विद्या पाने के अभिलाषी को ‘विद्यार्थी’ कहा जाता है। विद्या ग्रहण करने के लिए निरन्तर अध्ययन और चिन्तन-मनन की आवश्यकता होती है। विद्यार्थी का प्रथम दायित्व एकाग्रता से अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़ना तथा उनका मनन-चिंतन करना होता है। कोई भी पुस्तक केवल पढ़ लेने भर से या अध्यापक के मुख से केवल सुन लेने भर से पूरी तरह समझ में नहीं आती। जब तक कि उन बातों के ऊपर गहराई से मनन-चिन्तन नहीं किया जाए।

अध्ययन से मनुष्य के ज्ञान का द्वार खुलता है, अध्ययन मस्तिष्क को परिष्कृत करके हृदय को सुसंस्कृत बनाता है। अध्ययन, चिन्तन एवं मनन द्वारा विद्या अर्जित करना विद्यार्थी का दायित्व है। इसके साथ-साथ विद्यार्थी को अपने गुरुजनों अथवा शिक्षकों का भी आज्ञाकारी बनना चाहिए। अपने परिवार तथा समाज के कार्यों में हाथ बँटाना भी विद्यार्थी का कर्तव्य है। जब घर के किसी काम में विद्यार्थी की बहुत जरूरत हो तो विद्यार्थी को पुस्तक पढ़ने का बहाना बनाकर एकदम एकान्त में नहीं बैठ जाना चाहिए। उसे परिवार की जरूरतों को समझकर घर के अन्दर अपना उचित सहयोग देना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं है। कि घर के काम-धन्धों के चक्कर में विद्यार्थी अपनी पढ़ाई ही भूल जाए। यदि वह रोज पाँच घण्टे स्कूल के लिए देता है, तीन घण्टे होमवर्क के लिए, दो घण्टे भोजन तथा खेल के लिए देता है तथा छः घण्टे शयन एवं विश्राम के लिए देता है तो कम-से-कम एक घण्टा अपने परिवार के कामों के लिए अवश्य दे। यदि घर में कोई सदस्य बीमार हो या किसी को कोई तकलीफ हो तो विद्यार्थी को

उसके हालचाल अवश्य पूछ लेने चाहिए।

इसी प्रकार विद्यार्थी को अपने समाज के कामों में भी मदद करनी चाहिए। जब अपने मोहल्ले-पड़ोस या समाज पर कोई विपत्ति आ पड़े तो विद्यार्थी आपदाग्रस्त प्राणियों की हर सम्भव मदद करनी चाहिए। यदि सड़क

पर को अन्धा, लला-लँगडा या लाचार व्यक्ति जा रहा हो तो विद्यार्थी को उसे सड़क पर कराने में मदद करनी चाहिए। ऐसा करना विद्यार्थी का नैतिक दायित्व है।

विद्यार्थियों के लिए आचार्य चाणक्य ने निम्नलिखित आठ बातें छोड़ने की सलाह दी हैं-

कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृंगार कौतुके।

अतिनिद्राति सेवा च, विद्यार्थी हृष्ट वर्जयते॥

(अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, शृंगार, तमाशा, अधिक निद्रा तथा अत्यधिक सेवा की मेहनत करना विद्यार्थियों के लिए उचित नहीं है।)

प्राचीन गुरुकुल पद्धति में विद्यार्थी केवल ऋषियों के आश्रम में ही रहकर विद्यार्जन किया करते थे। वे अपने घर-परिवार, समाज तथा राष्ट्र से कटे हुए होते थे इसलिए उनको अपने घर, परिवार, समाज तथा राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता था। उनका प्रमुख दायित्व एकाग्रता के साथ विद्या का अध्ययन करना, गुरु की सेवा करना तथा आश्रम की साफ-सफाई के साथ-साथ आश्रम (गुरुकुल) के कार्यों में मदद करना होता था।

लेकिन आज का विद्यार्थी ऐसा नहीं है। वह विद्यालय अथवा महाविद्यालय में जाकर पढ़ाई तो करता है लेकिन अपने घर, परिवार तथा समाज से कटा हुआ नहीं है। अपने शैक्षिक दायित्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ वह अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र के प्रति महत्त्वपूर्ण दायित्वों को भी निभाना जानता है। आज का विद्यार्थी अपने परिवार, समाज और देश से कटा हुआ नहीं है या उनसे अलग होकर नहीं रहता। वह अपने स्कूल या कॉलिज की पढ़ाई करने के साथ-साथ अपने घर-परिवार के कार्यों को भी करता रहता है तथा समाज को या राष्ट्र को उनकी जरूरत जब पड़ती है तो वह उनकी सहायता के लिए तैयार रहता है।

प्राचीन गुरुकुल पद्धति में विद्यार्थी को दीन-दुनिया की कोई खबर नहीं रहती थी लेकिन आज का विद्यार्थी टेलीविजन के समाचारों तथा पत्र-पत्रिकाओं की खबरों को देख-पढ़कर, अपने समाज, राष्ट्र और विश्व के ताजा हालातों के बारे में सब पता रहता है। दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, अपने देश में रोज-रोज क्या घटित हो रहा है इसकी उसे सब खबर रहती है। इस तरह की महत्त्वपूर्ण जानकारियों से उसके अन्दर अपने दायित्वों का निर्वाह करने की जागृति आती है।

विद्यार्थी के जीवन का लक्ष्य केवल विद्यार्जन करके नौकरियाँ लेना नहीं है, बल्कि शिक्षा के जरिए अपने अन्दर श्रेष्ठ संस्कारों एवं श्रेष्ठ चरित्र के निर्माण का दायित्व भी उसका है। विद्यार्थी-जीवन को संस्कारकाल भी कहा जाता है। यह अन्तःकरण में सुसंस्कारों को उद्दीप्त करने का स्वर्ण अवसर प्रदान करता है। विद्यार्थी-जीवन में पड़े हुए अच्छे संस्कार जब हृदय में बद्धमूल हो जाते हैं तो वे जीवनभर विद्यार्थी के साथ रहकर उसके मन को सुखशान्ति प्रदान करते रहते हैं या उसे नैतिक, शैक्षिक अथवा चारित्रिक दृष्टि से कोई-न-कोई लाभ ही पहुँचाते रहते हैं। विद्यार्थी के अन्दर पड़े हुए सुसंस्कार उसे अपने धर्म, राष्ट्र तथा समाज के प्रति कर्त्तव्यपूर्ति की प्रेरणा देते हैं। ये संस्कार उसे परहित या राष्ट्रहित के लिए जीवन-समर्पण एवं उत्सर्ग की प्रेरणा देते हैं। अपने अन्दर सुसंस्कारों का विकास करना विद्यार्थी का मुख्य दायित्व है।

गुरुकुल पद्धति में अपने गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना तथा शाला में अनुशासन बनाए रखना विद्यार्थियों का कर्तव्य समझा जाता था। आज के समय में भी विद्यार्थियों का फर्ज है कि वे अपने विद्यालय अथवा महाविद्यालय में अनुशासन बनाए रखें तथा शिक्षकों की बातों का कहना मानें। हमारे समाज में शिक्षकों का सम्मान गुरुकुल जैसा ही होना चाहिए। यदि कोई विद्यार्थी अपने अध्यापक का कहना नहीं मानता तो वह कभी भी अध्यापक का कृपा-पात्र नहीं बन सकता। कक्षा में अध्ययन करते हुए अपने शिक्षक के वचनों को एकाग्र मन से सुनना चाहिए। पाठ्यक्रम सम्बन्धी बातों को सुनकर उन पर गहराई से मनन-चिन्तन करते हुए अपने अन्दर धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। अध्यापक जो भी शिक्षा-कार्य घर करने के लिए दें, उसे उसी दिन शाम तक अवश्य कर लेना चाहिए।

विद्यार्थी का एक दायित्व धार्मिक संस्कारों को अपने हृदय में धारण करना है। जिस प्रभु पिता ने उसको नया जीवन पृथ्वी पर दिया है, उस प्रभु को दिन या रात के समय शान्त मन से एकाध घड़ी याद अवश्य कर लेना चाहिए तथा भारतीय महापुरुषों, धर्मावतारों एवं देवी-देवताओं के महान् जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर धार्मिक कार्यों में मन लगाना चाहिए।

लेकिन जिस प्रकार अति की हर चीज खराब होती है, वैसे ही विद्यार्थी । के लिए परिवार तथा समाज के कार्यों में ज्यादा ध्यान देना, खेलकूद और भक्ति-पूजा में अधिक लगना तथा अपने सुखचैन तथा विश्राम का ख्याल न करके दिन-रात पढ़ाई में ही लगे रहना हानिकारक है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संयम बनाए रखना। विद्यार्थी का प्रथम दायित्व है।

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