विद्यार्थी जीवन
Vidyarthi Jeevan
जब मनुष्य पृथ्वी पर शिशुरूप में पैदा होता है तो उसे ज्ञान और विद्या-संस्कार का बोध नहीं होता। ये सब बातें उसे अपने स्कूल के वातावरण से तथा माता-पिता से सीखने को मिलती हैं।
पहली वर्ष की आयु से लेकर लगभग पाँच वर्ष की आयु तक बालक घर में रहकर खाता, पीता तथा खेलता-कूदता है। इसके बाद उसे विद्याध्ययन की दृष्टि से स्कूल में भर्ती करा दिया जाता है। यहीं से बालक के एक नए जीवन की शुरूआत होती है, जिसे ‘विद्यार्थी-जीवन’ कहा जाता है।
भारत की प्राचीन विद्या-पद्धति में 25 वर्ष की आयु तक विद्यार्थी घर से दूर ऋषि-आश्रम में रहकर विभिन्न विद्याओं में निपुणता प्राप्त किया करता था। लेकिन देश की परिस्थितियाँ बदल जाने से आजकल यह प्रथा लुप्त हो गई है। इस प्रथा का स्थान अब विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों ने ले लिया है। इस तरह की संस्थाओं में अध्ययन करने वाला बालक या युवक ‘विद्यार्थी कहलाया जाता है।
भारत में आजकल जो छात्रावास पद्धति है-वह ऋषि-आश्रम या गुरुकुल का ही परिवर्तित रूप है। अपने घर से दूर इस तरह के छात्रावास या गुरुकुल में रहकर जब व्यक्ति पढ़ाई करता है तो वह सच्चे अर्थों में अपने विद्यार्थी-जीवन का ही निर्वाह करता है।
विद्यार्थी जीवन को हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं। पहले वर्ग में वे विद्यार्थी आते हैं जो अपने घर-परिवार के अन्दर रहकर पढ़ाई किया करते हैं तथा साथ ही साथ अपने परिवार की समस्याओं, आवश्यकताओं और माँगों को भी पुरा करते हैं। ऐसे विद्यार्थी स्वयं पाठी भी होते हैं और नियमित प्रकार के भी होते हैं अर्थात् वे प्रतिदिन अपने स्कूल कॉलिज भी जाते हैं तथा घर के कामों भी सँभालते हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे भी होते हैं जो कोर्स की किताबों को घर पर रहकर ही पढ़ते हैं तथा घर के सारे काम भी निबटाते हैं।
दुसरे वर्ग में वे विद्यार्थी आते हैं जो अपने घर से दूर रहकर पढ़ाई करते हैं। ऐसे विद्यार्थियों को न तो घर के काम धन्धों की चिन्ता होती है और न किसी प्रकार का पारिवारिक झंझट होता है। ये पूर्णतः शैक्षिक वातावरण में रहते हुए अपने विद्यार्थी जीवन का निर्वाह किया करते हैं तथा अपना शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विकास भी करते हैं। अपने विद्यार्थी जीवन में मनुष्य ज्ञान की कई शाखाओं से परिचय प्राप्त करता है तथा विभिन्न प्रकार की कला-योग्यताओं का विकास भी करता है। विद्यार्थी-जीवन में व्यक्ति के अन्दर अपनी आजीविका तथा अपने पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह की क्षमता भी आती है।
विद्यार्थी जीवन मनुष्य के लिए बौद्धिक-स्तर का संघर्षमय काल होता है। जब विद्यार्थियों की परीक्षाएँ आती हैं तो उनका जीवन तपस्वी या साधक की तरह हो जाता है। परीक्षा के दिनों में वे सुबह से लेकर रात तक पढ़ाई ही करते रहते हैं। पढ़ाई के चक्कर में कुछ विद्यार्थी तो अपना खाना-पीना और नींद-विश्राम तक भी भूल जाते हैं। इसका उनके स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।
विद्यार्थियों को चाहिए कि वे पढ़ाई के साथ-साथ अपने खाने-पीने, विश्राम तथा नींद आदि का भी ख्याल रखें तथा कुछ समय वे अपने खेलने-कूदने के लिए भी निकालें। इससे उनका बौद्धिक विकास होने के साथ-साथ शारीरिक विकास भी होगा।
विद्यार्थी-जीवन में व्यक्ति अपने स्कूल या कॉलिज के निश्चित पाठ्यक्रम के अध्ययन से ज्ञान का अर्जन करता है। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन, पुस्तकों के अध्ययन तथा आचार्यों के प्रवचनों को सुनकर वह अपना मानसिक विकास प्राप्त करता है। इसके अलावा शिक्षा काल में अपने स्कूल-कॉलिज के अन्य विद्यार्थियों के साथ जब वह कहीं घूमने या टूर पर जाता है तो वह नए प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है। स्कूलों में वार्षिकोत्सव आदि समारोहों में भाग लेकर विद्यार्थी अपनी संस्कृति, कला आदि के क्षेत्र में योग्यता पाते हैं तथा विभिन्न प्रकार की खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग लेकर अपने स्कूल का, अपना और अपने माता-पिता का नाम ऊँचा करते हैं। प्रातःकालीन व्यायाम और सायंकालीन खेलों से विद्यार्थियों का उचित रूप से शारीरिक विकास होता है।
विद्यार्थी-जीवन को अंग्रेजी कहावत के अनुसार सर्वश्रेष्ठ जीवन कहा गया है (स्टूडेण्ट लाइफ इज दी बेस्ट लाइफ)। कारण यह है कि इस जीवन में किसी प्रकार की चिन्ताओं और जिम्मेवारियों का बोझ व्यक्ति के सिर पर नहीं होता। उसका काम सिर्फ पढ़ना और पढ़ना ही होता है। पढ़ाई करने वाले कुछ छात्र तो ऐसे होते हैं जिनसे यदि घर के किसी काम के लिए कहा जाए तो वे नाक-भौं सिकोड़ते हैं तथा घरवालों को ईष्र्या की नजर से देखते हैं। यह सत्य है कि विद्यार्थियों को अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही लगाना चाहिए लेकिन जब घर के किसी सदस्य को उनके सहयोग की जरूरत हो तो उन्हें घरवालों के काम में मदद भी करनी चाहिए। आखिरकार हमारा परिवार या घर भी तो एक विद्यालय या महाविद्यालय की तरह है जिसमें रहकर हमें जीवन के कई नए-नए अनुभव प्राप्त होते हैं, हमें शिष्टाचार, सदाचार तथा सद्व्यवहार के पाठ सीखने को मिलते हैं।
आज का विद्यार्थी-जीवन ऋषि-परम्परा के विद्यार्थी जीवन से अलग है। ज्ञानार्जन के नाम पर आज प्राथमिकशाला का नन्हा-सा विद्यार्थी गधे भर का बोझ अपने सिर पर लादता फिरता है। विद्या की साधना, मन की एकाग्रता और अध्ययन के मनन चिन्तन से आज के विद्यार्थी कोसों दूर हैं। अनेक छात्र-छात्राएँ अपनी पढ़ाई से जी चुराने लगे हैं। वे अध्ययन-कार्य में मेहनत करने के बजाय नकल करके पास होना चाहते हैं। कुछ चालाक तथा तिकड़मी छात्र तो ऐसे हैं जो फर्जी या जाली डिग्रियाँ बनाकर जल्दी-से-जल्दी कोई अच्छी नौकरी पा लेना चाहते हैं।
महाविद्यालय परिसर (कॉलिज के कैम्पस) में आज अनेक छात्र सीटियाँ बजाते हुए, छात्राओं के साथ छेड़खानी करते हुए, गप्पें मारते तथा मटरगश्ती करते हुए पाए जाते हैं। इस तरह की बेतुकी हरकतें तथा गतिविधियाँ विद्यार्थी-जीवन का आदर्श नहीं हैं। छात्रों की दृष्टि में आज गुरुजनों अथवा शिक्षकगणों का भी उतना सम्मान नहीं रह गया है, जितना कि प्राचीनकाल में था। ऋषिकुल परम्परा में प्रत्येक विद्यार्थी अपने गुरुजी की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म और कर्तव्य समझता था। गुरु यदि अपने किसी शिष्य की कड़ी परीक्षा भी लेता था तो शिष्य के मन में किसी प्रकार का प्रश्न-चिह्न पैदा नहीं होता था। आजकल तो स्कूल या कॉलिज का कोई शिक्षक किसी बात पर विद्यार्थी को जरा-सा डांट देता है। तो विद्यार्थी के मन में अपने शिक्षक के प्रति अनादर तथा विद्रोह का भाव पैदा हो जाता है।
ऋषिकुल परम्परा में विद्यार्थी राजनीति की दलदल से कोसों दूर रहते थे। आज के विद्यार्थी तो राजनीति की वारांगना से बेहद प्रेम करने लगे हैं। स्कूल और कॉलिजों में छात्र-संघ के चुनाव राजनीति के आम चुनावों की तरह ही होते हैं। इन चुनावों में विद्यार्थी-प्रत्याशियों का खूब जोर-शोर से नाम-प्रचार किया जाता है। कॉलिज छात्र संघ के चुनावों में प्रत्याशियों का खूब पैसा भी खर्च होता है। धीरे-धीरे हुन विद्यार्थियों की रुचि देश की राजनीति से होने लगती है। वे लोक सभा तथा विधान सभा के चुनावों में भी रुचि दिखाने लगते हैं। राजनीति की दलदल उनके निश्चिन्त निष्कलंक जीवन पर कलंक की काली चिन्ता-सी छा जाती है। राजनीतिक प्रेम के कारण विद्यार्थियों को हड़ताल, तोड़फोड़, जलसे और जुलूस, नारेबाजी तथा ‘जिन्दाबाद’ और ‘मुर्दाबाद’ करने का पाठ जल्दी ही सीखने को मिल जाता है।
हमारे देश में स्कूल और कॉलिजों में पढ़ने वाले कई छात्र-छात्रएँ ऐसे हैं। जिनका विद्यार्थी जीवन प्रेम और वासना के आकर्षण का केन्द्र बनकर रह गया है। ऐसे विद्यार्थी अक्सर करके गल्र्स फ्रेण्ड तथा बोयज़ फ्रेण्ड बनाने में रुचि लेने लगते हैं। वे व्यर्थ में घूमने-फिरने, होटल तथा क्लबों में जाने में ही अपने समय को सदुपयोग समझते हैं। वासनात्मक सम्बन्धों को उत्तेजित करने के लिए वे अश्लील फिल्मी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते हैं, शराब और अन्य मादक पदार्थों का उपयोग करते हैं। ऐसे छात्र-छात्राएँ अपने विद्यार्थी जीवन में ही विद्या की अर्थी को उठाने लगते हैं और ज्ञानार्जन के पवित्र कर्म को कामाग्नि में स्वाहा करने लगते हैं।
खेलकूद और शारीरिक व्यायाम विद्यार्थियों के जीवन के लिए आवश्यक समझा जाता है। इनसे उसका शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर बनता है, परन्तु शारीरिक खेलों और शारीरिक व्यायामों में रुचि लेने के बजाय आज के विद्यार्थी टी.वी. , सिनेमा, सी.डी., कम्प्यूटर आदि इलेक्ट्रॉनिक चीजों तथा मानसिक प्रकार के व्यायामों में रुचि लेने लगे हैं। इनसे उनका शारीरिक विकास उचित प्रकार से नहीं हो पाता तथा शारीरिक व्याधियाँ तथा अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक कष्टों को सहने लगते हैं।
टेलीविजन पर आजकल खूब मारधाड़ के दृश्य तथा अश्लील फिल्में दिखाई जाने लगी हैं जिसके कारण विद्यार्थी अपने जीवन में अनेक प्रकार की मानसिक विकृतियों का शिकार हो जाते हैं। उनके सोचने का नजरिया तथा जीवन का लक्ष्य ही बदल जाता है। घर-घर में छाया टी.वी. का कुप्रभाव विद्यार्थी जीवन के ऊपर एक कलंक तथा रोग की तरह हो गया है।
यदि हम अपने देश के विद्यार्थी का जीवन स्तर तथा उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाना चाहते हैं तो हमें उनको टी.वी. के जरिए स्वस्थ और सात्त्विक प्रकार का मनोरंजन प्रदान करना चाहिए तथा विद्यार्थियों की रुचि शारीरिक खेलों में बढ़ानी चाहिए। देश के बहुत से नेता छात्र-शक्ति का उपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए करके उनके विद्यार्थी जीवन को खोखला बना रहे हैं। युवा-विद्यार्थियों को इस मामले में तुरन्त सचेत हो जाना चाहिए। उन्हें देश के किसी भी छोटे या बड़े नेता के हाथ की कठपुतली नहीं बनना चाहिए।
आम नागरिक की तरह विद्यार्थियों को भी जीवन की तकलीफें तथा मुसीबतें सहनी पड़ती हैं। अपने परिवार की गिरती-उठती हालत से, आर्थिक दशाओं से, समाज के उत्थान और पतन से तथा शिक्षा एवं मनोरंजन के स्तर से विद्यार्थियों का जीवन भी प्रभावित होता है।
राष्ट्र के अन्य लाखों करोड़ों लोगों की तरह विद्यार्थियों का जीवन भी आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। विद्यार्थी आज अपने जीवन की मूल दिशा से भटककर भौतिक जगत् की चकाचौंध अथवा आकर्षण में फँसता जा रहा है।
विद्यार्थियों को अपना जीवन-स्तर सुधारने के लिए अथक लगन, परिश्रम, जीवनादर्श, ब्रह्मचर्य, एकाग्रता, संयमशीलता, धैर्य तथा सहनशीलता का पक्का व्रत लेना होगा तभी वे विद्यार्थी-जीवन की शाश्वत कसौटी पर और समय की कसौटी पर खरे उतर पाएँगे।