विद्यार्थी जीवन
Vidyarthi Jeevan
निबंध नंबर :- 01
‘विद्यार्थी शब्द अपने आप में एक महत्वपूर्ण और व्यापक अर्थ वाला शब्द है। यह शब्द दो शब्दों के योग से बना है-विद्या + अर्थी इसका अर्थ यह हुआ जो विद्या को प्रयोजन के रूप में ग्रहण करता है, वही विद्यार्थी है। इस प्रकार विद्यार्थी का एकमात्र उद्देश्य विद्या की प्राप्ति ही है।
आदि पुरुष मनु ने हमारे जीवन को चार भागों में विभाजित किया है-ब्रह्मचर्य, गृहस्य, संन्यास और वानप्रस्थ। इनमें ब्रह्मचर्य अर्थात् विद्यार्थी जीवन सबसे सुनहरा, सुखद, प्रभावशाली और विशिष्ट होता है। ऐसा इसलिए कि इस काल में भविष्य की बुनियाद तैयार होती है। यह काल भविष्य का ताना-बाना बुन करके उसे सदा के लिए पुष्ट और टिकाऊ बना देता है। इस काल में न केवल शरीर शद तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न होता, अपितु बुद्धि-विवेक का भण्डार पूरा भरा होता है, वह सुरक्षित होकर बहुत ही प्रभावशाली और आकर्षक दिखाई देता है। इसे ही ब्रह्मतेज या ब्रह्मस्वरूप कहा जाता है। यह सम्पूर्ण रूप से तेजवान् और चैतन्य पूर्ण होकर प्रेरणादायक रूप में होता है। इस प्रकार यह सजग रहकर किसी प्रकार के आलस्य और सुस्ती से कोरों दूर रहता है। यह सचमुच में मानव-जीवन का स्वर्णिम काल होता है।
किसी ने विद्यार्थी के स्वरूप लक्षण को इस प्रकार बतलाया है-
“काक चेष्टा, बको ध्यानं ।
श्वान निद्रा तथैव च।।
अल्पाहारी, गृहत्यागी,
पंच विद्यार्थी लक्षणम्।।’‘
अथात् एक सच्चे और आदर्श विद्यार्थी के पाँच प्रमुख लक्षण होते हैं। वे इस प्रकार हैं- कौए की चेष्टा करना, बगुले की तरह ध्यान देना, कत्ते की तरह नींद। लेना, अल्पाहारी र गृहत्यागी ही विद्यार्थी के पाँच प्रमुख लक्षण हैं। इस प्रकार एक वास्तविक विद्यार्थी के गुण और स्वरूप सचमुच में अद्भुत और बेमिसाल होते हैं। वह चन-धनकर अपने अंदर अति सुन्दर, रोचक और लाभदायक संस्कारों (गुणों)। को ग्रहण करके उन्हें अपनाता है।
एक अन्य स्थल पर विद्यार्थी को सावधान करते हुए कहा गया है-
सुखार्थिनः कुतो विद्या,
विद्यार्थिनः कुतो सुखम्।
सुखार्थिनः त्यजेत् विद्या,
विद्यार्थिनः सुखं त्यजेत् ।।
अर्थात् सुख चाहने वालों को विद्या कहाँ है और विद्या चाहने वालों को सुख कहाँ है ? अथति नहीं है। इसलिए सुख चाहने वालों को विद्या-प्राप्ति की आशा छोड़ देनी चाहिए और विद्या चाहने वालों को सुख की आशा नहीं करनी चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाए तो दुःखी मनुष्य अपनी कड़ी मेहनत और सुख की आशा को छोड़कर के विद्या को प्राप्त कर लेते हैं जबकि सुखी मनुष्य अपने सुख और आनंद के ध्यान में होने के कारण विद्या को नहीं प्राप्त कर पाते हैं। इस आधार पर विद्या की प्राप्ति बड़ी कठिनाई, मेहनत और त्याग से होती है, केवल वल्पना और सुख-सुविधाओं के संसार फैलाने से नहीं।
विद्यार्थी जीवन स्वतंत्र जीवन होता है। वह स्वाभिमानपूर्ण जीवन होता है। उसमें किसी प्रकार की दब्बू मनोवृत्ति नहीं होती है। वह किसी प्रकार के दबाव-झुकाव से कोसों दूर रहता है। वह आत्मविवेक से निर्णय लेने वाला निडर और निःशंकपूर्ण जीवन होता है। वह आत्मचेतना, आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मनिश्चय का विश्वस्त और दृढ़-निश्चयी होता है। अतः वह पत्थर की लीक के समान अटल, अविचल और स्थिर गति से आगे बढ़ता जाता है। उसका इस तरह आगे बढ़ना काल से महाकाल, साधारण से असाधारण और अद्भुत से महा अद्भुत स्वरूप वाला होता है। इस प्रकार विद्यार्थी-जीवन ही ऐसा जीवन होता है, जिसमें सभी प्रकार की संभावनाएं छिपी रहती हैं।
विद्या प्राप्त कर लेने के परिणामस्वरूप कई अच्छे गुण स्वयं ही उनमें प्रवेश कर जाते हैं-
“विद्या ददाति विनयं,
विनयादयाति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति,
धनाद्धर्मं ततः सुखम्।।”
विद्या से विनय, विनय से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म तथा धर्म से सुखों की प्राप्ति होती है। विद्या-व्यसनी नम्रता के गुण से युक्त हो जाते हैं। नम्रता तथा सदाशयता आदि अच्छे गुण विद्यार्थी के जीवन में सफलता प्राप्ति के सोपान हैं। एक विद्वान के अनुसार–
“विद्या राजसु पूज्यते न तु धनम्।’
राजदरबारों में भी विद्या की पूजा होती है। दूसरे शब्दों में विद्वान वर्ग ही समादर का पात्र होता है। ऐसा इसलिए कि, धन की कमी तो राजाओं के पास भी नहीं होती और भी।
“विद्वत्वंचनृपत्वंच नैव तुल्य कदाचन्।’
अर्थात विद्वान, नृपत्व इन दोनों में कभी समानता नहीं हो सकती। सुस्पष्ट है कि विद्वता नृपत्व से भी बढ़कर है; क्योंकि-
“स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।”
अर्थात् विहान का आदर तो सर्वत्र होता है, उसे किसी स्थान या क्षेत्र विशेष की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। राजा का तो शासन-क्षेत्र सीमित होता है। उसी परिधि में उसका सम्मान विशेष रूपेण होता है। विद्यार्थी को अपने जीवन में नियमों का कड़ाई से पालन करना पड़ता है।
निबंध नंबर :- 02
विद्यार्थी जीवन
Vidyarthi Jeevan
भूमिका- प्रत्येक मनुष्य संसार में सुखमय जीवन व्यतीत करने की अभिलाषी होता है और यह तभी सम्भव हो सकता जब वह अपने विद्यार्थी जीवन में, किशोरावस्था में अपने कर्त्तव्य को पहचानता है। आदर्श गुणों को अपनाता है तथा जीवन संघर्ष की तैयारी करताहै। माली अपने कठोर परिश्रम से अपने उपवन को सुन्दर फूलों से सजाता है।
विद्यार्थी का अर्थ और क्षेत्र-विद्यार्थी शब्द विद्या+अर्थी से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है विद्या की इच्छा वाला, विद्या को ग्रहण करने वाला। संक्षेप में कहा जा सकता है कि निरन्तर सीखना और किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त करना ही विद्यार्थी का मुख्य अर्थ है। विद्याध्ययन का काल लगभग 5 वर्ष की अवस्था से आरम्भ हो जाता है और 25 वर्ष तक चलता रहता है। विद्यार्थी काल में विद्यार्थी का मुख्य उद्देश्य ज्ञान ग्रहण करना है।
विद्यार्थी के कर्त्तव्य- आदर्श विद्यार्थी- प्राचीन काल में विद्यार्थी गुरुकुलों में रहकर शिक्षा अध्ययन किया करता था। आज शिक्षण कार्य के लिए विभिन्न प्रकार की संस्थाओं की स्थापना की गई है। संस्कृत के एक श्लोक के अनुसार विद्यार्थी को कौवे के समान गतिविधि वाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के समान नींद वाला, कम भोजन करने वाला और ब्रह्मचारी होना चाहिए। आदर्श विद्यार्थी वही कहा जा सकता है जिसमें सबसे पहला गुण विनम्रता हो। विद्यार्थी जीवन जीवन की पहली सीढ़ी है। आदर्श विद्यार्थी का दसरा आदर्श अनुशासनप्रिय होना है।
अनुशासन प्रिय विद्यार्थी का जीवन नियमित होता है तथा अध्यापक उससे प्रभावित होते हैं। परिश्रमी होना विद्यार्थी जीवन का सबसे बड़ा आभूषण है। विद्यार्थी सभी प्रकार के सुखों को त्यागता है। एक-एक क्षण का उपयोग कर वह निरंतर अपने ज्ञान के भण्डार को भरता है। परिश्रम ही उसकी पूंजी होती है। रात्रि के समय जब लोग सोते हैं तब विद्यार्थी अपना अध्ययन करता है। वर्तमान युग में पाठ्यक्रम बढ़ जाने से तो उसे और भी अधिक परिश्रम करना आवश्यक है। यदि विद्यार्थी व्यसनो में उलझ जाता है, यदि फैशन के प्रति आकर्षित हो जाता है तो वह अपने उद्देश्य से भटक जाता है। विद्यार्थी को कुसंगति से दूर रहना चाहिए। विद्यार्थी का जीवन सादा और विचार उच्च होने चाहिए। आदर्श विद्यार्थी को मितभाषी और मधुरभाषी, अभिमान रहित तथा स्वाव लम्भी भी होना चाहिए।
विद्यार्थी और राजनीति- प्राचीन भारत में राजा का पुत्र भी राजनीति से अलग होकर विद्या अध्ययन करता था परन्तु आधुनिक काल में विद्यार्थी अध्ययन को गौण मानकर राजनीति के कुचक्रों में फंस जाता है। आज का विद्यार्थी राजनीति के कुचक्रों में फंस जाता है। आज का विद्यार्थी अपने लक्ष्य से भटककर व्यर्थ के कार्यों में समय व्यतीत करता है। विद्यार्थी को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेना चाहिए। राजनीति का उसे ज्ञान होना चाहिए। अपने विचारों को निष्पक्ष होकर प्रकट करने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु आवेशमें आकर अपने मार्ग से नहीं भटकना चाहिए।
उपसंहार- वर्तमान युग में विद्यार्थी जीवन के आदर्श लुप्त हो गए हैं। आज विद्यार्थी में विनम्रता के स्थान पर उदण्डता आ गईहै। वह केवल परीक्षा पास करने में ही अपनी सफलता मानता है। आज का विद्यार्थी मर्यादा को त्याग कर माता-पिता तथा गुरुजनों के प्रति अभद्र व्यवहार करता है। यदि उसे अपने भविष्य जीवन और राष्ट्र से प्यार है तो उसको एकमात्र उद्देश्य विद्या ग्रहण करना होना चाहिए।
निबंध नंबर :- 03
विद्यार्थी जीवन
Vidyarthi Jeevan
विद्यार्थी जीवन मानव के निर्माण और विकास की आधारशिला है।। मानव अपने विद्यार्थी जीवन में ही स्वास्थ्य दक्षता और आचार-विचार ग्रहण करता है। इस अवस्था में बालक जैसे संस्कार और आचार-विचार ग्रहण कर लेता है, वे देश और धर्म ने विद्या जा है। सा वे जीवन-पर्यन्त वैसे ही बने रहते हैं। इसीलिए प्रत्येक और धर्म ने विद्यार्थी जीवन पर समुचित ध्यान दिया है। शिक्षा द्वारा विद्यार्थी पूर्ण मनोयोग से अपने जीवन के निर्धारित लक्ष्य की ओर बढता इसके बाद वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करके अपने दायित्वों का निर्वाह करता है।
विद्यार्थी जीवन भावी जीवन की आधारशिला है। जिस पर जीवन का भव्य भवन निर्मित होता है। वास्तव में, विद्या प्राप्त करने का सबसे उपयुक्त समय विद्यार्थी जीवन ही है। बालक इसी काल में मस्तिष्क का विकास, ज्ञान का उदय और शारीरिक बल का संचय करता है। इस काल में महापुरुषों की पुस्तकों का अवलोकन, यात्राओं का आनंद, ऐतिहासिक स्थानों के भ्रमण का सुख, मेले, नाटक, सिनेमा आदि से मनोरंजन की स्वच्छंदता रहती है। इसीलिए यह काल मस्ती और निश्चिन्तता का काल होता है। इस समय धन और उत्तरदायित्वों की चिन्ता नहीं रहती का यह अत्यंत महत्वपूर्ण काल है। यदि इस काल का सदुपयोग न गया, तो फिर हाथ मलकर रह जाना पड़ता है।
विद्यार्थी दो शब्दों के मेल से बना है-विद्या+अर्थी जिसका है विद्या चाहने वाला। विद्या प्राप्त करने के लिए परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। विद्यार्थी को सभी सुखों का त्याग करना पडता है। चाणक्य ने ठीक ही कहा है-“सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ?”
विद्यार्थी जीवन में हमें चरित्र-निर्माण का सुअवसर प्राप्त होता है। और मानवीय गुणों का विकास होने पर ही विद्यार्थी का भावी जीवन सार्थक होता है। शास्त्रों में विद्यार्थी को लगनशील, एकाग्रचित, सजग, कम भोजन करने वाला और अच्छे आचरण वाला होना बताया है-
“काकचेष्टा बकोध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, सदाचारी, विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।।”
अर्थात् विद्यार्थी को कौए के समान चेष्टावाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के समान नींद वाला, कम भोजन करने वाला और सदाचार का पालन करने वाला होना चाहिए। और उसे ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ को अपनाना चाहिए।