विद्यार्थी और राजनीति
Vidyarthi aur Rajniti
निबंध नंबर : 1
भूमिका- इसे झुठलाया नहीं जा सकता कि आज का युवा आज का विद्यार्थी कल का नेता है। विद्यार्थी को अपनी राजनीति से परिचित होना चाहिए। लेकिन यह बात सत्य है कि विद्यार्थी का मुख्य लक्ष्य ज्ञान अर्जित करना है, विद्या अध्ययन करना है। युवकों की शक्ति को पहचान कर उनसे राष्ट्र निर्माण में तभी सहयोग लिया जा सकता है जबकि उनका मार्ग-दर्शन उचित दिशा में हो।
राजनीति के पक्ष में विचार- कुछ लोगों की राय है कि विद्यार्थी को राजनीति में भाग लेना चाहिए। उनका विचार है कि विद्यार्थी ही राष्ट्र के भावी नेता बनेगें। विद्यार्थी राष्ट्र के उत्थान की नींव होते हैं। यदि नींव दृढ़ होगी तो भवन भी दृढ होगा। यदि विद्यार्थी राजनीति में भाग न लेंगे, युग नीति से परिचित न होंगे तो काम कैसे चलेगा। महात्मा गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन में विद्यार्थियों को स्वयं बुलाया था। सभी पाटियां अपनी-अपनी राजनीति में विद्यार्थियों का सहयोग लेती हैं। जो आज बड़े-बड़े नेता दिखाई देते हैं- उन्होंने बचपन से ही राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया था। सुभाषचन्द्र बोस, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी आदि नेता इसके प्रमाण हैं। ऐसे लोगों का मत है कि विद्यार्थियों को राजनीति में अवश्य ही प्रवेश करना चाहिए।
विपक्ष में विचार- कुछ लोगों की राय है कि विद्यार्थी को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। कारण यह है कि विद्यार्थी का मन बड़ा चंचल होता है। वैसे ही विद्यार्थी पढ़ाई की ओर ध्यान नहीं देते, उनका मन इधर-उधर भटकता रहता है। यदि विद्यार्थी राजनीति में भाग लेने लगा तो मन पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लगेगा। विद्यार्थी का अर्थ है विद्या को प्राप्त करने वाला। अगर उनकी विद्या ही पूर्ण न हुई तो वह राजनीति में आकर भटक जाएगा। इसकी नींव कच्ची रह जाएगी। यदि विद्यार्थी राजनीति में भाग लेने लगे तो वह न तो पूर्ण राजनीतिज्ञ बनेगा और न ही उसकी विद्या पूर्ण होगी। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने कहा था कि सत्रह वर्ष की आयु तक विद्यार्थी को राजनीति से दूर रखना चाहिए।
समस्या का समाधान- मेरा आज के राजनीतिक नेताओं के प्रति नम्र निवेदन है कि वे विद्यार्थियों को अपना लक्ष्य सिद्धि का हथियार न बनाए। इससे उनकी विद्या प्राप्ति में बाधा पड़ती है, राष्ट्र का बड़ा भारी नुकसान होता है। प्राय: देखा गया है जो विद्यार्थी राजनीति के चक्कर में पड़ जाते हैं, वे अपना भविष्य खराब कर लेते हैं क्योंकि विद्या-प्राप्ति और राजनीति ये दो बातें एक साथ नहीं चल सकती। यहाँ गांधी जी का यह कथन विचारणीय है- मेरे विचार में विद्यार्थी जो कुछ कहना चाहे कह सकते हैं और जहां भी जाना चाहे जा सकते हैं परन्तु उन्हें राजनीतिक हड़तालों में भाग नहीं लेना चाहिए।
उपसंहार- विद्यार्थी को राजनीति में प्रवेश नहीं करना चाहिए। आज युग बदल गया है विद्यार्थी को चाहिए कि वह देशकी निर्माणात्मक राजनीति में भाग लें। जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था, उस समय विद्यार्थियों का कर्त्तव्य था कि वे देश की रक्षा करते। जब महात्मा गांधी ने पुकारा था तब भी ठीक था क्योंकि अपना देश पर तन्त्र था। स्वतन्त्र भारत में तोड़-फोड़ करना विद्यार्थियों के लिए ठीक नहीं इसलिए विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए।
विद्यार्थी और राजनीति
Vidyarthi aur Rajneeti
निबंध नंबर : 2
विद्या और राजनीति सगी बहन हैं। दोनों को एक-दूसरे से अलग करना कठिन है। दोनों का स्वभाव भिन्न है लेकिन लक्ष्य एक है-व्यक्ति और समाज को अधिक से अधिक सुख पहुँचाना। विद्या नैतिक नियमों का वरण करती है, अत: उसमें सरलता है, विजय है और बल है। राजनीति में अभिमान है, वह बाह्य शक्ति है। अगर भारतीय राजनीति का पिछला इतिहास देखा जाए तो कहा जा सकता है कि विद्या ने राजनीति को सदा स्नेह दिया है और प्रतिदान में राजनीति ने शिक्षा को समुचित अनाआदर – दिया है जिसका संचालन राजनीतिक नेताओं द्वारा होता है।
इतिहास साक्षी है कि जब भी किसी राष्ट्र में क्रान्ति का शंखनाद फूंका गया है तो वहाँ के छात्र दृष्टा मात्र नहीं रहे हैं अपितु क्रान्ति की बागडोर संभाली है। पराधीन काल में आज़ादी के लिए और वर्तमान काल में भ्रष्टाचारी सरकारों को उखाड़ने में भारत में छात्रशक्ति ने अग्रसर होकर क्रान्ति का आह्वान किया है। इण्डोनेशिया और ईरान में छात्रों ने सरकार का तख्ता पलट दिया. था। यूनान की शासननीति में परिवर्तन का श्रेय विद्यार्थियों को है। बंगला देश को अस्तित्व में लाने में लाने के लिए ढाका विश्वविद्यालय का योगदान कभी विस्मरण नहीं किया जा सकता। असम के मुख्यमंत्री छात्रेनता बने थे।
विद्यार्थी पढ़कर नौकरी करना चाहता है पर उसे सरलता से नहीं मिलती. परिणामस्वरूप राजनीति में आ जाता है। उसे राजनीति आसान लगती है। आज कॉलेज और विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव होते हैं। वे संसद के चुनाव से कम खर्चीले । नहीं हैं। विद्यालय में संसद और विधानसभाओं का अनुसरण किया जाता है। विधानसभाओं और संसद में हंगामे, लांछन और वाक युद्ध चलते हैं। ये किसी भी दृष्टि से अनुकरणीय नहीं हैं। उनका दुष्प्रभाव समाज पर पड़ता है। ऐसे में विद्यार्थी राजनीति में कूद जाता है। उसे लगता है कि उनसे अच्छा शासन वे दे सकते हैं।
आज का विद्यार्थी राजनीति का रोगी है। उसे अठारह वर्ष का होने पर मताधिकार दे दिया गया है। यह उसे छल-छदम कीराजनीति में घसीटना है। हड़ताल, धरने उसके पाठ्यक्रम के अंग हैं। तोड़-फोड़, राष्ट्रीय संपत्ति की आहति उसकी परीक्षा के प्रश्नपत्र हैं। उचित-अनुचित माँगों पर अधिकारियों और शासकों को झुका लेना उसकी सफलता का प्रमाण है।
डॉ. आत्मानंद ने कहा है, ” राजनीतिज्ञों को यह समझाना होगा कि शिक्षा गरीब की लुगाई और सबकी भोजाई नहीं है जो हर अगवा और पिछलग्ग उसे छेड़ता रहे। जिसका शिक्षा से नमस्कार नहीं हुआ, बन्दगी नहीं हुई, वह भी उसके संबंध में बिना सोचे-विचारे, बिना आना-कानी किए, बिना आगा-पीछा देखे कुछ कह डाले…इसे रोकना होगा। अत: शिक्षा में राजनीति का हस्तक्षेप समाप्त होने पर भारत का विद्यार्थी व्यावहारिक राजीनिति का विद्वान् बन कर देश को सही राह दिखा सकता है।