विद्यार्थी और सिनेमा
Vidyarthi aur Chalchitra
किसी विचारक ने सिनेमा को ‘पाप की माँ’ (सिन = अपराध या पाप + मा) कहा है। किसी और व्यक्ति के लिए यह उक्ति चरितार्थ चाहे हो न हो लेकिन विद्यार्थियों के लिए यह कथन सौ प्रतिशत सत्य है। सिनेमा के अश्लील और हिंसक दृश्य विद्यार्थियों के मानस को विकृत बना देते हैं।
एक समय था जब चलचित्र या सिनेमा मनोरंजन के लिए हल्का-फुल्का विषय माना जाता था लेकिन आज तो सिनेमा विद्यार्थियों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है। वह अपने पाठ्यक्रम की किताबों पर कम लेकिन सिनेमा की पिक्चरों में ज्यादा ध्यान देने लगा है। लम्बे-चौड़े, हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर शरीर वाले नायक छात्रों के जीवन का आदर्श बन गए हैं। फिल्में देख-देखकर वे उन्हीं के अन्दाज वाली जीवन शैली को अपनाने लगे हैं, उन्हीं की वाकुशैली या संवाद शैली में बातचीत करने लगते हैं। जिस तरह से कोई भक्त अपने इष्टदेव या देवी का चित्र अपने घर में रखते हैं, उसी प्रकार विद्यार्थी भी अपने कमरे में और जेब में नायक-नायिकाओं के चित्र रखने लगे हैं। छात्राएँ सिनेमा देख-देखकर नायिकाओं की स्टाइल में अपने बाल बनाने लगी हैं और उन्हीं की तरह टॉप-स्कर्ट तथा शर्ट-पैंट पहनने लगी हैं। यही नहीं, वे अपने शरीर के उभारों को कृत्रिम खप से आकर्षक बनाकर युवकों के मन को सम्मोहित करने में अपने जीवन की शान तथा जीवन की सफलता समझती हैं।
आज के विद्यार्थी के लिए चलचित्र एक प्रेयसी के समान है, उसको देखे बना विद्यार्थी को अपना जीवन शुन्य-सा लगता है। चलचित्र के संवाद विद्यार्थी के लिए धर्मग्रन्थ के श्लोक की तरह बन गए हैं, जिन्हें कण्ठस्थ करना और उनका उच्चारण करने में वह अपने जीवन की कृतार्थता समझने लगा है। सिनेमा या चलचित्र का गीत संगीत उसके हृदयरूपी वीणा के तारों को झंकृत करने वा आवश्यक उपकरण बन गया है।
जिस तरह एक भक्त के लिए मन्दिर या मस्जिद उपासना स्थल होता है उसी तरह विद्यार्थी के लिए छविगृह (सिनेमा हाल) पूजा का स्थल बन गया है। अपने स्कूल के अनमोल समय से भागकर अथवा माता-पिता से चोरी-छिपे, झठा बहाना बनाकर भी वह इस पूजागृह में नायक-नायिका रूपी इष्ट के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाने के लिए मचल उठता है।
अभिनेत्रियों के अश्लील चित्रों वाली पत्र-पत्रिकाओं अथवा सिने-पत्रिकाओं को आज के छात्र बड़े चाव से पढ़ते हैं तथा उनमें लिखी बातों को इस तरह याद कर लेते हैं, जैसे वे उनके कोर्स (पाठ्यक्रम) से सम्बन्धित बातें हों।
अपने मनपसन्द अभिनेता-अभिनेत्रियों के जीवन चरित्र, उनकी पिक्चरों के नाम, गीत तथा संवादों को वह कुशाग्रता के साथ तोते की तरह रट लेता है। फिल्म का कौनसा गाना किसने लिखा, किस गायक ने गाया, किस संगीतज्ञ ने संगीतबद्ध किया तथा किस नायक अथवा नायिका पर वह पिक्चाराइज्ड किया गया-उसे कंठस्थ याद रहता है।
आजकल विद्यार्थी फिल्मों में देखादेखी लड़कियों से कच्चा प्रेम करने लगते हैं, उनके साथ मरने-जीने के झूठे वायदे भी करने लगते हैं और कभी-कभी तो प्रेम-मोह के वशीभूत होकर अपने प्राण भी गवां देते हैं। किस तरह चलचित्र में बैंक को लूटा गया है, किस तरह किसी औरत की इज्जत लूटी गई है तथा नशीली चीजों का प्रयोग किस प्रकार किया गया है-इन सब बातों को विद्यार्थी सिनेमा देखकर ही सीखता है। इस प्रकार विद्यार्थियों का जीवन-चरित्र बिगाड़ने में चलचित्र की विशेष भूमिका है।
चलचित्र के कुप्रभाव से विद्यार्थी सिगरेट आदि के नशे में झूमते हुए तथा दूसरों से ऊटपटाँग बकते हुए दिखाई देते हैं। करोड़पति बाप के लड़के सिनेमा देख-देखकर अपने जेबखर्च के रुपयों को यार-दोस्तों के बीच उड़ाने में देरी नहीं करते।
आज विद्यालय अथवा महाविद्यालय के छात्र-छात्राएँ अपनी कक्षा के अन्दर पाठ्यक्रम-विषय सम्बन्धी बातें करते कम पाए जाते हैं लेकिन नई रिलीज हुई पिक्चर अथवा छविगृहों में चल रहे चलचित्रों की चर्चाएँ ज्यादा करते पाए जाते हैं। इन चलचित्रों में किस नायक-नायिका को वे पसन्द करते हैं, किस तरह का एक्शन या गीत चाहते हैं और किस प्रकार का नापसन्द करते हैं-इस सबकी विस्तृत चर्चा स्कूल कॉलिज के खाली कालांशों में होती रहती है। जब देखा कि कक्षा का पीरियड खाली है अथवा टीचर नहीं आए हैं तो ज्यादातर विद्यार्थी इसी तरह की सिनेमा-चर्चाओं में अपना मन लगाते हैं।
चलचित्रों की बातचीत द्वारा वे फिल्मों की श्रेष्ठता और हीनता का प्रमाण-पत्र ने हैं तथा महत्त्वपूर्ण संवादों को खुद बोलकर बतलाते हैं। चलचित्र आज विद्यार्थी लिए प्रेमभाव का जनक हो गया है। वह स्कूल तथा कालिज के विद्यार्थियों को वॉयफ्रेण्ड या गल्सफ्रेण्ड बनाना सिखलाता है। सिनेमा को देख-देखकर आज के अनेक विद्यार्थियों को प्रेम का रोग जैसा हो गया है। वह प्रत्येक छात्रा में प्रेमिका का दर्शन करना चाहता है, अपनी भाभी, भाभी की बहिनों, चचेरी बहिनों और रिश्तेदारों की अन्य युवतियों को भी वह वासनाभरी नजरों से देखता है।
चलचित्र से प्रभावित होकर ही विद्यार्थी प्रेम विवाह करते हैं तथा प्रेमिका को पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं। अपनी मनचाही लड़की या किसी छात्रा से प्रेम-विवाह करने के चक्कर में वे अपने माँ-बाप की इच्छा का अनादर करते हैं, उसके पीछे अपना घर-परिवार छोड़ देते हैं तथा जाति-बन्धन को ठोकर मार देते हैं लेकिन कुछ वर्षों पश्चात् जब उनके प्रेम विवाह का खुमार उतरता है तो वे बहुत पछताते हैं। ऐसे प्रेम विवाह अक्सर करके असफल ही देखे जाते हैं। कुछ विद्यार्थियों पर चलचित्र का जादू इतना सिर चढ़कर बोलता है कि वे चलचित्र जगत् के हीरो’ और ‘हीरोइन’ बनने के लिए मचल उठते हैं। अभिनेता या अभिनेत्री के रूप में प्रसिद्धि और पैसा पाने के लिए वे चलचित्रों के नगर (मुम्बई) जाते हैं, वहाँ डांस और एक्टिंग आदि सीखते हैं। इनमें से केवल एक दो व्यक्तियों को ही फिल्म में नायक या नायिका बनने का मौका मिल पाता है। शेष विद्यार्थी अपना तन-मन और धन गवांकर ‘लौट के बुद्धू! घर को आए’। कहावत की तरह मुँह लटकाए अपने घर वापिस चले आते हैं और घर परिवार, मित्र, आस-पड़ोस के लोगों के उपहास के पात्र बनते हैं।
ऐसी बात नहीं है कि चलचित्र के अन्दर केवल सभी प्रकार की बुराइयाँ ही सिखाई जाती हैं। चलचित्र में अनेक अच्छी बातों की शिक्षा भी दी जाती है। लेकिन विद्यार्थी उन शिक्षाओं को कम अमल में लाते हैं। चलचित्रों के उपदेशों पर ध्यान देने के बजाय वे नायक-नायिकाओं के शरीरों, उनके वस्त्रों तथा उनके हावभावों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। इसके कारण उनके अन्दर आत्म-सुधार होने के बजाय उनकी दृष्टिवृत्ति में गिरावट अधिक देखने को मिलती है।
प्रायः विद्यार्थी चलचित्र से बुराई को ग्रहण करता है, उसमें प्रदर्शित अ बातों को ग्रहण करने से कतराता है। चलचित्र में तो नायक को गरीब लट की सहायता करते हुए तथा असहाय अबला नारी को गुण्डों के चंगुल से छुड़ाते हुए दिखाया जाता है जबकि सामान्य जिन्दगी जीने वाला विद्यार्थी हीरो बनने का शौक रखते हुए भी इस तरह की सहायता करने से कतराता है।
“ए’ सर्टिफिकेट वाली अश्लील फिल्मों को देखने के लिए कई विद्यार्थियों में होड़-सी लगी है। वे अपने माँ-बाप तथा स्कूल के शिक्षकों से बहाना बनाकर इस तरह की फिल्में देखने जाते हैं और चलचित्र देख आने के बाद बड़े चाव से चलचित्र के अश्लील और कामोद्दीपक दृश्यों की चर्चा अपने सहपाठियों से करते हैं जिससे उनके अन्दर भी इस तरह की गन्दी, वर्जित एवं अशुद्ध फिल्में देखने की इच्छा उठती है।
चलचित्र के भड़काऊ गीत तो विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क पर बुरी तरह। छाए रहते हैं। वह उन गीतों की धुन सुनने के लिए तड़पता रहता है तथा फुरसत के क्षणों में रेडियो एवं टेपरिकार्डर पर पूरी आवाज में वे गीत सुन-सुनकर थिरकता रहता है, मानो वही उसके जीवन का चरम और वास्तविक आनन्द हो।
अच्छे चलचित्रों या फिल्मों से विद्यार्थी का ज्ञानवर्धन भी होता है। वह चलचित्र के माध्यम से अनेक दर्शनीय स्थल, पवित्र तीर्थ, ऐतिहासिक भवन, सांस्कृतिक धरोहर तथा कलाकृतियों को देख पाता है। महापुरुष, वीर-शहीदों और देशभक्ति से भरपूर फिल्में विद्यार्थियों के अन्दर देशभक्ति की भावना जगाती हैं। चलचित्रों ने विद्यार्थियों को सोचने की नई दिशा भी दी है। बातचीत की शैली, गीतसंगीत के प्रति अभिरुचि, सामाजिक व्यवहार की प्रेरणा तथा निर्भय होकररहने की शिक्षा विद्यार्थियों को काफी हद तक चलचित्रों के माध्यम से मिली है।
चलचित्र या फिल्मों के माध्यम से विद्यार्थी बहुत कुछ सीख सकता है, बहुत कुछ पा सकता है तथा बहुत कुछ खो भी सकता है। अच्छे और बुरे प्रकार के चलचित्रों पर विद्यार्थी का उत्थान और पतन निर्भर है। श्रेष्ठ विषय के चलचित्र ज्ञानदीपक की तरह विद्यार्थी के जीवनपथ को प्रकाशित करते हैं। जबकि बुरे के गहन अन्धकार में धकेल देते हैं। (अशुद्ध और अश्लील, हिंसक) विषयों के चलचित्र विद्यार्थी को अज्ञान और पतन।
It was a good one
But please post the essays in short writing manner also…