वर्षा ऋतु
Varsha Ritu
पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण ऋतुएँ होती हैं। ऋतुयें छः होती हैं, पर उनमें मुख्य तीन ऋतुयें ही होती हैं (1) सर्दी , (2) गर्मी , (3) बरसात। सभी ऋतुओं का विशेष महत्त्व है। इनमें वर्षा ऋतु को जीवनदायिनी ऋतु माना गया है।
भारतवर्ष में वर्षा का मौसम मध्य जून में प्रारम्भ होकर मध्य अक्टूबर तक रहता है। वर्षा ऋतु के पहले गर्मी से चारों ओर हाहाकार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। नदी, नाले, कुएँ, तालाब सभी सूख जाते हैं। प्रकृति उजाड़-सी दिखाई देती है। दोपहर के समय गर्म लू मानो कोड़े बरसाती है। पशु-पक्षी पानी की तलाश में इधर-उधर भटकते फिरते हैं। पानी बिना हर प्राणी व्याकुल दिखाई देता है।
जून के दूसरे या तीसरे सप्ताह में यह धरती तवे की भाँति जलने लगती है। इससे निकलती हुई वाष्प आकाश में घिरने लगती है। समुद्र खौल उठता है। परिणामस्वरूप आकाश में बादल घिरने लगते हैं और थोड़े ही समय में बूंदा-बूंदी के साथ रिमझिम बरसात शुरू हो जाती है। इस जल-सृष्टि के साथ हवा का तेज झोंका भी बन उपवनों सहित नदी-नालों को अपनी मस्त बयार से मस्त बना डालता है। जन-जन में खुशी के कंठ फूट चलते हैं। पशु-पक्षी अपनी स्वतन्त्रता की मस्ती से झूमने लगते हैं। धरती का तप्त आँचल शीतल और सुहावनी हरियाली से सज-धज जाता है।
गाँव का तो दृश्य ही बदल जाता है। कृषक अपने-अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं। बोआई और निराई का काम शुरू हो जाता है। थोड़े ही दिनों में खेतों। में फसल लहलहाने लगती है। प्रकृति में नई बहार आ जाती है। लगता है धरती माता ने हरी साड़ी पहन ली हो। पृथ्वी की प्यास बुझ जाती है प्राणी, जीव-जन्तु राहत की साँस लेते हैं। किसानों को जीवन मिलता है।वर्षा ऋतु से वातावरण सुहावना और मन-मोहक हो जाता है।
नदी-नालों में अपार जल भर जाता है। चारों ओर से उनमें बाढ़ आ जाती हैं। ये इठलाते हुए समुद्र की गोद में चले जाते हैं। जलाभाव के कारण दुःखी जलचर अब सुखद जीवन जीने लगते हैं। पेड़-पौध नए-नए पत्तों से ढक जाते हैं। इनमें नए-नए फूल और फल आने लगते हैं। फूलों के लोभी भौरों का दल इन पर मंडराने लगता है और फलों के लिए आतुर पक्षीगण इन पर अपना बसेरा करने लगते हैं। वन-उपवन और कुंजों की छटा निराली हो जाती है। विरंगे फूलों का आकर्षण देखते ही बनता है। चारों ओर सुगन्धयुक्त वायु का झोंका हमारे ससुप्त’भावों को एक ऐसा मीठा अनुभव देने लगता है कि हम गुनगुनाने लगते हैं। धरती का आँचल बीजों के अंकरों से सजने लगता है। पतले-बढ़ते ये अंकुर बादलों के कभी मंद और कभी तीव्र जल प्रहार के साथ-साथ कड़कड़ाहट और गड़गड़ाहट की डॉट फटकार को भी डरते-काँपते । सहते रहते हैं। दिन में तो कम, रात्रि के समय आकाश से चमकती हुई विद्युत की ज्योति धरती पर आती हुई न जाने किधर छिप जाती है, जिसे देखने के लिए बार-बार उत्सुक हो उठता है।
एक ओर वर्षा हमें जल, भोजन और शीतलता प्रदान करती है। वहीं दूसरी ओर विनाश, भयंकर बीमारियां और गन्दगी का साम्राज्य भी प्रदान करती हैं। जीवन के लिए वर्षा नितान्त आवश्यक है। वर्षा के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि शासन चाहे तो वषा से होने वाली हानियों पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। इस प्रकार वर्षा ऋतु हमें जीवन-रस देकर हमारी रक्षा कर सकती है।
वर्षा ऋतु से जहाँ हमें लाभ और आनन्द प्राप्त होता है; वहाँ इससे हमें बड़ी हानि और बड़े कष्ट भी झेलने पड़ते हैं। वर्षा ऋतु का कष्टदायक पक्ष जो है, वह उसके लाभदायक पक्ष के समान बहुत भारी और कष्टकर है। अधिक या कम वर्षा से जो पीड़ा होती है, वह असहनीय होती है। कम वर्षा सूखे और अकाल का कारण बनती है और अधिक वर्षा बाढ़ और विनाश की कारण। अत्यधिक वर्षा नदी-नालों में बाढ़ लाकर विनाश करती है। इससे पशु मर जाते हैं और कच्चे झोंपड़े धरती पर गिर जाते हैं। सुन्दर भवन भी भीषण वर्षा का सामना नहीं कर पाते। यदि इस समय इस जल को नियन्त्रित किया जा सके, तो वर्षा ऋतु उपकारिणी कहलायेगी।
अतएव हमें वर्षा ऋतु का स्वागत इसके लाभ को ही विचार करके नहीं करना | चाहिए, अपितु हमें यह सोचना-विचारना चाहिए कि इसकी हानियाँ भी हमें स्वीकारनी होंगी। सामान्यतः जहाँ फूल होते हैं, वहाँ काँटे भी होते हैं। इसलिए वर्षा ऋतु से जहाँ हमें लाभ और आनन्द मिलता है, वहीं इसकी हानियाँ भी मिलती हैं, जो निश्चित रूप से हैं हमें स्वीकारना भी पड़ता है। अतएव हमें वर्षा ऋतु का स्वागत सहर्ष करना चाहिए। हाँ प्रकृति देवी से हमें यही प्रार्थना करनी चाहिए कि इसका सही आगमन समय पर और निश्चित रूप से होवे, जिससे हमारा-मन-प्रसन रिवल उठे।