स्वामी विवेकानंद
Swami Vivekanand
निबंध नंबर -: 01
संत महात्माओं की भूमि, भारत में अनेक दिव्य आत्माओं ने शरीर धारण कर नित्य निरंतर हमारा मार्गदर्शन किया है। भारतीय सदा सौभाग्यशाली रहे हैं कि उन्हें भक्ति और कर्म की सही दिशा का मार्ग प्रशस्त होता रहा है।
ऐसे ही एक सत्पुरुष स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कोलकाता में हुआ। जन्म के समय उनका नाम नरेंद्रनाथ रखा गया। बचपन से ईश्वर भक्ति में उनकी रुचि थी। वे पढ़ाई में तेज़ और एक आज्ञाकारी विद्यार्थी स्वामी विवेकानंद श्री रामाकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। उन्होंने लगभग पूरे भारत में उनका संदेश फैलाया था। स्वामी जी का मार्ग अंधविश्वास और अधर्म कार्यो का नहीं अपितु मनुष्य की उन्नति का था।
उन्होंने धर्म के विषय पर कई भाषण दिए जिससे देश-विदेश के लोग। प्रभावित हुए। उनकी प्रख्यात पुस्तकों में से ‘राजयोग’ आज भी पाठकों के बीच प्रसिद्ध है। उन्होंने कोलकाता में दो भिन्न जगहों पर ‘रामकृष्ण मिशन’ के नाम से मठ की भी स्थापना की। वे सामाजिक कुरीतियों के आलोचक थे। लंबी कार्य अवधि और मधुमेह ने 4 जुलाई 1902 में स्वामी जी के प्राण हर लिए। उनकी शिक्षा सदैव अपने । अनुचरों के हृदय में जीवंत रहेगी।
निबंध नंबर -: 02
स्वामी विवेकानंद
Swami Vivekanand
स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम था-नरेन्द्र। परंतु संपूर्ण विश्व में वह स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हैं। स्वामी विवेकानंद का जन्म 1863 ई० में हुआ था। उन्होंने अंग्रेज़ी स्कूल में शिक्षा पाई और 1884 में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। उनमें आध्यात्मिक भूख बहुत तीव्र थी, अतः वह ‘ब्रह्म समाज’ के अनुयायी बन गए। उन दिनों स्वामी विवेकानंद जब सत्य की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे तब उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई। फिर उन्होंने रामकृष्ण परमहंस को अपना गरु बना लिया। परमहंस जी की वाणी में अद्भुत आकर्षण-शक्ति थी, जिसने स्वामी विवेकानंद को वशीभूत कर लिया और वे उनके भक्त बन गए।
नरेन्द्र की माँ की इच्छा थी कि वह वकील बने और विवाह करके गृहस्थी बसाए। परंतु जब वे रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में आए, तो उन्होंने संन्यास ले लिया। अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए वे हिमालय चले गए। सत्य की खोज में उन्होंने अनेकों कष्ट झेले। फिर हिमालय से उतरकर उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया। लोगों को धर्म और नीति का उपदेश दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी।
उन्हीं दिनों स्वामी विवेकानंद को अमेरिका में होने वाले ‘सर्वधर्म सम्मेलन’ का समाचार मिला। वे तुरंत उसमें सम्मिलित होने को तैयार हो गए और भक्त-मंडली के सहयोग से वे अमेरिका पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ऐसा पाण्डित्यपूर्ण, ओजस्वी और धाराप्रवाह भाषण दिया कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए।
स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम वालों को बताया कि ‘कर्म को केवल कतव्य समझकर करना चाहिए। उनमें फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।’ ह बात उनके लिए बिल्कल नई थी। स्वामी विवेकानंद के भाषणों की प्रशंसा वहाँ के समाचार-पत्रों में छपने लगी। उनकी वाणी में ऐसा जादू था कि श्रोता आत्म-विभोर हो जाते थे। स्वामी जी अमेरिका में तीन साल रहे और वहाँ वेदान्त का प्रचार करते रहे। इसके बाद वे इंग्लैण्ड चले गए। वहाँ भी वे एक वर्ष रहे। वहीं पर उनके वेदान्त के ज्ञान से प्रभावित होकर कई अंग्रेज़ उनके शिष्य गए और उनके साथ भारत आ गए।
स्वामी विवेकानंद का रूप बड़ा ही सुंदर एवं भव्य था। उनका शरीर गठा हुआ था। उनके मुखमंडल पर तेज था। उनका स्वभाव अति सरल और व्यवहार अति विनम्र था। वे अंग्रेजी के अतिरिक्त संस्कृत, जर्मन, हिब्रू, ग्रीक, फ्रेंच आदि भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे।
बाद में स्वामी विवेकानंद ने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की और इसकी शाखाएँ देशभर में खोल दीं। इस संस्था का उद्देश्य लोकसेवा करते। हुए वेदान्त का प्रचार-प्रसार करना था।
फिर एक दिन 4 जुलाई, 1902 को वे एकाएक समाधि में लीन हो गए। बताया जाता है कि उसी अवस्था में वह शरीर त्यागकर स्वर्ग सिधार गए। कन्याकुमारी में समुद्र के मध्य बना ‘विवेकानंद स्मारक’ उनकी स्मृति को संजोए हुए है। वे ज्ञान की ऐसी मशाल प्रज्जवलित कर गए हैं, जो संसार को सदैव आलोकित करती रहेगी।