सिद्धान्तवादी कट्टरता
Sidhantvadi Kattarta
हमारी मध्यकालीन व्यवस्था में लाखों बुराइयाँ तो थी-धर्मांधता, कट्टरता, जातिवाद, रूढ़िपूजा-लेकिन एक अच्छाई थी जो निभाई जा सके तो बहुत अच्छा हो। मुहल्ले-टोले में, गाँव-गिराम में, दूसरे को सहारा देने, अपने दुश्मन को भी पारिवारिक कष्ट में जाकर उसे मदद देने की एक परंपरा थी,जो धीरे-धीरे खत्म हो रही है। कुछ ये बड़े शहर उसे मिटा रहे हैं, कुछ राजनीति की हवाई सिद्धान्तवादी कट्टरता और निहित स्वार्थों की मुठभेड़ उसे मिटा रही है। लेकिन जब कभी इक्का-दुक्का ऐसी खबरें दिख जाती हैं तो खुशी होती है, मन को एक राहत मिलती है कि हमारे देश के छोटे-छोटे गाँव-कस्बों के नितान्त साधारण लोग इन्सानियत के स्तर पर हमद, प्यार, आपसी समझदारी और सहारे से अपने ढंग से राष्ट्र-निर्माण का काम करते चल रहे हैं, जो धुआंधार भाषणों से ज्यादा ठोस और महत्व का है। उन हजारों अज्ञात लोगों के ऐसे हजारों महत्त्वपूर्ण कामों की चाहे कोई खबर अखबार में न छपे लेकिन इस देश के असली निर्माता वे ही अज्ञात साधारण लोग हैं। इस झुठ और दंभयुक्त प्रचार के कोलाहल में मन की सच्चाई, ईमानदारी, नेकी और मानवीयता के बीज वे ही लोग बो रहे हैं। अगर देश के एक भी बच्चे के मन में उन्होंने स्वाभिमान जगाया और प्रकाश दिया तो वह दस हज़ार वोट इक्कठा करने से ज्यादा ठोस काम है।