सती प्रथा
Sati Pratha
‘मती’ शब्द ‘सत्’ से बना है और इसका अर्थ है-‘सच्ची नारी’। परन्तु मृतक पति के साथ चिता पर जलकर ही नारी सती या सच्ची बनती हो-ऐसी बात नहीं। चिता की अग्नि में तो उसकी देह आदि सभी कुछ खत्म हो जाता है। नारी सच्ची या सती होती है-पतिव्रता धर्म का पालन करके। पति के जीते जी जो नारी पराए पुरुष का ध्यान कभी स्वप्न में भी नहीं लाती-वही नारी सच्ची या सती है।
सती सावित्री और सती सीता को ‘सती’ इसलिए नहीं कहा गया कि उन्होंने मृतक पति का सिर गोदी में रखकर पति की चिता में अपनी देह त्यागी लेकिन उनको सती या सच्ची नारी इसलिए कहा गया क्योंकि वे सत्य पर चलीं।
परन्तु कालान्तर में पति के शव के साथ ही पत्नी के जल मरने या चिता में भस्म होने को ‘सती’ कहा जाने लगा। बाद में समाज द्वारा विधवा नारी के देह दाह की प्रथा को मान्यता दी जाने लगी और विधवा का पति की चिता के साथ जल जाना जरूरी समझा जाने लगा।
वैदिक युग में सती–प्रथा के उदाहरण देखने को नहीं मिलते। केवल रामायण काल में मेघनाद की पत्नी सुलोचना के सती होने का उल्लेख मिलता है लेकिन रामायण में ही राक्षसों के राजा रावण की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी मन्दोदरी पति के शव के साथ सती होने के बजाय अपने देवर विभीषण से विवाह करना उचित समझती है। इस प्रकार रामायण काल में भी इस प्रथा की अनिवार्यता देखने को नहीं मिलती। महाभारत काल में अवश्य नारी के सती होने के एक-दो हरण देखने को मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर जब पाण्डु की मृत्यु हो जाती है तो उनकी पत्नी माद्री अपने पति के शव के साथ सती होती है।
मुस्लिम काल (मुगलशासन के समय) में हिन्दू स्त्रियाँ ज्यादा सती होने लगी थीं। इसका कारण यह था कि वे क्रूर मुस्लिम शासकों की भोगवासना की भोगवासना तथा दूषित दृष्टि का शिकार नहीं बनना चाहती थी। सम्राट् अलाउद्दीन की कुदृष्टि रानी पदिमनी पर थी लेकिन उस कामुक शासक के हाथों में पड़ने से पहले ने अपने महल की अन्य स्त्रियों के साथ स्वयं को जौहर की आग में भस्म कर दिया। पद्मिनी रानी का उद्देश्य अपने पति के साथ सती होना नहीं बल्कि अपने कुल, मान, इज्जत की रक्षा करना था।
कुछ स्त्रियाँ तो स्वेच्छा से अपने पति के शव के साथ सती होती थीं पर कुछ बहुओं को विधवा हो जाने पर जबरदस्ती चिता की आग पर बैठाया जाता था। चारों तरफ अनेक ढोल नगाड़े तथा भक्ति के गीत बजाए जाते थे। इस कोलाहल में चिता की लपटों के बीच झुलसती हुई स्त्रियों की चीखें किसी को सुनाई नहीं देती थीं।
राजा राम मोहन राय जैसे समाज-सुधारकों ने इस प्रथा के विरोध में जनमानस को जाग्रत करने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। विलियम बैटिंग की सरकार ने सन् 1929 में सती–प्रथा के विरोध में कानून बनाकर इस कुप्रथा पर पाबंदी लगा दी।
सती–प्रथा पर कानून रोक लगने के बाद भी समाज के उकसाने पर विधवा स्त्रियाँ कहीं-कहीं सती होती रहीं। सती–प्रथा को मान्यता प्रदान करने वाले शूरवीर, दानवीर समाज के नेता बन गए। वे सती मन्दिरों का निर्माण करने लगे और उन मन्दिरों में पूजा-अर्चना प्रक्रिया को भी महत्त्व देने लगे।
आज भी दो-चार स्त्रियाँ हर साल हमारे देश में कहीं-न-कहीं सती होती रहती हैं।
बीसवीं सदी की समाप्ति के समय भी सती-प्रथा के कुछ नजारे हमारे देश में देखने को मिले। जैसे कि रूपकँवर का सती होना तथा दिवराला का सती-काण्ड आदि। इन दोनों सतीकांडों में पुलिस और प्रशासन मूकदर्शक बना केवल देखता ही रहा।
आखिर विधवा स्त्रियों को पति के साथ जलने की जरूरत ही क्या है? दुनिया में कितने पति अपनी पत्नी की मृत्यु पर उसका सिर अपनी गोदी में रखकर चिता पर जलते हैं? इसके बजाय विधुर पति की दूसरी शादी कर दी जाती है और वह समाज की मान्यता प्राप्त कर फिर से भोग-विलास में मस्त हो जाता है।
केवल स्त्रियों के लिए ही सती होने की बंदिश रखना अन्याय है। जीवन के क्षेत्र में और भारतीय संविधान की दृष्टि से भी स्त्री और पुरुष दोनों समान अधिकारी हैं। सर्कार और कानून ने तो सतीप्रथा पर रोक लगा ही दी है लेकिन हमारे समाज को भी चाहिए कि वह जीवित नारी पर होने वाले इस प्रकार क अत्याचार का सख्ती से विरोध करे।