संस्कृति और समाज
Sanskriti aur Samaj
मानवीय आदर्शो, मूल्यों, स्थापनाओं एवं मान्यताओं के समूह को संस्कृति’ कहा जाता है। यह धर्म एवं दर्शन के रूप में मानव-समाज में प्रकट होती है। एक ओर मानव जहाँ संस्कृति से जुड़ा हुआ रहता है, वहीं वह अपने समाज से भी गहरे रूप से जुड़ा हुआ रहता है।
संस्कृति और समाज का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी समाज की जैसी जीवन शैली या जीवन जीने की प्रक्रिया होती है, वैसी ही उसकी संस्कृति होती है। संस्कृति सामाजिक व्यवहार की एक पद्धति का नाम है। संस्कृति हमारे देश के प्राचीन मूल्यों की शिक्षा के गुण समुदाय का नाम है। मनुष्य अपने मन और आत्मा की सन्तुष्टि के लिए जो प्रयास करते हैं-उन प्रयासों के समवाय का नाम ही संस्कृति है।
हमारे देश की संस्कृति बड़ी ही महानु एवं उदार किस्म की है। भारत की संस्कृति जीवन्त एवं अजर-अमर है। कारण यह है कि भारतीय समाज भी अजर-अमर किस्म का है। प्रलय काल में भी भारत का सम्पूर्ण विनाश नहीं होता।
साधारण अर्थ में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह के लिए किया जाता है। किसी भी संगठित या असंगठित समूह को समाज कह दिया जाता है। जैसे-आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, हिन्दू समाज, विद्यार्थी समाज तथा महिला समाज आदि। यह ‘समाज’ शब्द का सामान्य अर्थ है, जिसका प्रयोग विभिन्न लोगों ने अपने-अपने ढंग से किया है। किसी ने इसका प्रयोग व्यक्तियों के समूह के रूप में, किसी ने समिर्तिक रूप में और किसी ने संस्था के रूप में किया है।
समाजशास्त्र में समाज’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह के लिए नहीं किया गया है। यहाँ व्यक्तियों के बीच पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के जाधार पर निर्मित व्यवस्था को समाज माना गया है।
अमेरिकन समाजशास्त्री मैकाइवर एवं पेज अपनी ‘सोसायटी‘ नामक पुस्तक में लिखते हैं–
“…समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।”
अमेरिकन अर्थशास्त्री प्रो. गिर्डिंग्स के अनुसार-समाज स्वयं एक संघ है, एक संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का योग है, जिसमें परस्पर सम्बन्ध रखने वाले एक साथ संगठित होते हैं।
अमेरिकन समाजशास्त्री मोईस गिन्सबर्ग के मुताबिक–
एक समाज व्यक्तियों का वह समूह या संग्रह है जो कुछ सम्बन्धों या व्यवहार के कुछ ढंगों द्वारा संगठित है, जो उन्हें उन अन्यों से पृथक् करते हैं, जो इस सम्बन्ध में सम्मिलित नहीं हैं या वो व्यवहार में उनसे भिन्न हैं।”
ट्यूटर लिखते हैं-
“समाज एक अमूर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाए जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों की सम्पूर्णता का बोध कराती है।”
राइट की राय में–
‘‘समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है, यह समाज में रहने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था है।”
मैकाइवर एवं पेज अन्त में लिखते हैं–
समाज रीतियों एवं कार्य-प्रणालियों की, अधिकार एवं पारस्परिक सहायता की, अनेक समूहों एवं विभागों की, मानव व्यवहार के नियन्त्रणों एवं स्वतन्त्रताओं की एक व्यवस्था है। इस निरन्तर परिवर्तनशील, जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और यह सदैव परिवर्तित होता रहता है।
समाज के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण तत्त्व हुआ करते हैं–
1.रीतियाँ या प्रथाएँ सामाजिक प्रतिमान का एक प्रमुख प्रकार है। रीतियाँ समाज के निर्माण में आधार रूप में कार्य करती हैं। समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित अनेक रीतियाँ पाई जाती हैं। जैसे खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, विवाह, धर्म, जाति, शिक्षा आदि से सम्बन्धित रीतियाँ। ये रीतियाँ व्यक्ति को विशेष तरीके से व्यवहार करने को प्रेरित करती हैं।
2.कार्य-प्रणालियों को समाज का मुख्य आधार माना गया है। संस्थाओं के माध्यम से समाज कार्य करता है तथा संस्थाओं के जरिए समाज के लोग अपनी विभिन्न आवश्यकताओं एवं उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं।
3.समाज में अधिकार को सत्ता के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक समाज में प्रभुत्व एवं अधीनता के सम्वन्ध पाए जाते हैं। सप्त अनेक संगठन, समूह, समितियाँ आदि होते हैं, जिनके कार्य-संचा और सदस्यों के व्यवहार पर नियन्त्रण बनाए रखने के लिए कि व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के पास अधिकार या सत्ता का हो आवश्यक है। परिवार में यह अधिकार या शक्ति कर्ता के पास जाति में पंच के पास, गाँव में मुखिया, पटेल या प्रधान के पास
राज्य में राजा या सरकार के पास केन्द्रित होती है।
4.समाज के लोगों के बीच परस्पर सहयोग की भावना होती है।
5.समाज अनेक समूहों एवं विभागों या उपसमूहों से मिलकर बना होता है। परिवार, क्रीड़ा समूह, पड़ोस, जाति, गाँव, कस्बा, नगर, समुदाय, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक संगठन, स्कूल, महाविद्यालय आदि अनेक समूह एवं विभाग ही हैं जिनसे समाज बनता है। ये समूह व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूरी करने में सहयोग देते हैं।
6.समाज मानव व्यवहार पर नियन्त्रण रखने का काम करता है। सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधनों में कानून, न्याय-व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन आदि और अनौपचारिक साधनों में जनरीतियाँ, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ, संस्थाएँ, धर्म एवं नैतिकता आदि आते हैं। इन सभी साधनों के माध्यम से व्यक्तियों एवं समूहों के व्यवहारों को नियन्त्रित किया जाता है।
7.स्वतन्त्र वातावरण में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर समाज की प्रगति में योग दे सकता है। समाज के एक आवश्यक तत्त्व के रूप में स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है।
संस्कृति किसी जाति या समाज की अन्तरात्मा है। इसके द्वारा उस देश के समस्त संस्कारों का बोध होता है, जिनके आधार पर वह अपने सामाजिक या सामूहिक आदर्शों का निर्माण करता है।
प्रत्येक देश की संस्कृति तथा समाज की रचना अलग-अलग प्रकार की होती है। भारतीय संस्कृति भारतीय अन्तरात्मा की अभिव्यक्ति है और पाश्चात्य संस्कृति पश्चिम के समाज के संस्कारों का बोध कराती है।
जब मानव समाज के जीवन मूल्यों में परिवर्तन आता है तो संस्कति भी थोड़ी मात्रा में अवश्य बदलती है। जीवन की तरह संस्कृति भी चेतन और गतिशील है।
संस्कृति के निर्माण में धर्म का भी बड़ा हाथ होता है। धार्मिक भावना के अनरूप समाज के लोग अपने अन्दर श्रेष्ठ संस्कारों को धारण करते हैं जिसके फलस्वरूप एक श्रेष्ठ संस्कृति का निर्माण होता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से मानव की सांस्कृतिक सम्पदा दो प्रकार की होती है–
(1) दैवी संस्कृति तथा (2) आसुरी संस्कृति। आज से 5000 वर्ष पूर्व भारत में दैवी सभ्यता एवं संस्कृति विद्यमान थी। आज तो व्यक्तिगत स्वार्थो, मनोविकारों, कसंग, दुर्व्यसन और भ्रष्ट कर्मों के फलस्वरूप लगभग सारी मानवी संस्कृति ही आसुरी प्रकार की होती जा रही है। अपनी आदतों को सुधारकर और अपने कर्मों को बेहतर बनाकर भारतीयजन फिर से पृथ्वी पर देवसंस्कृति, दैव सभ्यता एवं दैव सृष्टि का पुनर्निर्माण कर सकते हैं।