रामतीर्थ का मेला
Ramtirath ka Mela
रामतीर्थ नामक स्थान अमृतसर से 11 किलोमीटर की दूरी पर लोपो के सड़क के किनारे स्थित है। यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा (अक्तूबर-नवम्बर) को माता सीता और महर्षि वाल्मीकि को श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के उद्देश्य से बड़ा भारी मेला लगता है। यह एक प्रकार से पंजाब प्रांत का सबसे प्राचीन मेला कहा जा सकता है। किवदन्ती है कि इस स्थान पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था।माता सीता ने अयोध्या-त्याग के बाद अपने एकाकी दिन यहीं पर व्यतीत किए थेइसी आश्रम में माता सीता ने लव-कुश नामक अपने प्रतापी पुत्रों को जन्म दिया था।
महर्षि वाल्मीकि एक महान तपस्वी तथा आत्मज्ञानी संत थे उन्होंने ब्रह्मा के आदेश पर बहुत समय पूर्व ही भगवान श्री रामचन्द्र की सम्पूर्ण जीवन गाथा को “रामायण” नामक महाकाव्य में छंदबद्ध कर दिया था।महर्षि वाल्मीकि की इस जगत-प्रसिद्ध काव्य-कृति की रचना इसी स्थान पर हुई थी। इसी पवित्र स्थान पर महर्षि वाल्मीकि ने अपनी दैवी शक्ति से लव-कुश को शस्त्रास्त्र-विद्या में इतना निपुण बना दिया था। कि उन दोनों वीर बालकों को युद्धभूमि में कोई भी योद्धा पराजित नहीं कर सकता था। लव-कुश (लगभग 12-13 वर्ष की) बाल अवस्था में ही थे, जब श्रीरामचन्द्र जी ने अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़कर घोषणा करवा दी कि अश्व को पकड़ने वाले व्यक्ति को उनके साथ युद्ध करना होगा। जब यज्ञ-अश्व वाल्मीकि आश्रम के समीप पहुंचा तब वन में खेलते हुए। लव-कुश ने उसकी लगाम पकड़ ली।
रामचन्द्र जी की सेना को जब यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने तुरंत लव-कुश को युद्ध के लिए ललकारा। अपने गुरु महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्राप्त हुई दैवी शक्ति का अवलंब लेकर उन दोनों बालकों ने युद्ध में श्री रामचन्द्र जी के सभी भाइयों सहित उनकी समस्त सेना को मूर्छित कर दियाअंततः श्री रामचन्द्रजी को स्वयं लव- कुश से लड़ने के लिए युद्ध भूमि में उतरना पड़ा। किन्तु युद्ध से पहले ही माता सीता उनके मध्य आ गई तथा उन्होंने लव-कुश को वास्तविकता का ज्ञान कराया कि श्री रामचन्द्र उनके पिता हैं। इस प्रकार यह युद्ध टल गया। तथा दोनों पुत्रों का अपने पिता के साथ चिराभिलाषित मिलन हो गया। किन्तु माता सीता को एक और बलिदान देना पड़ा वह थाउनका आत्म- बलिदान। पिता व पुत्रों के परस्पर मिलन के पश्चातू वह इस मिथ्या संसार को त्यागकर सदा के लिए धरती मां की गोद में समा गई।
इस स्थान पर एक पवित्र सरोवर है। कहा जाता है कि उसे माता सीता का यह आशीर्वाद प्राप्त है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा वाले दिन गंगा- यमुना का अमृतजल धरती के भीतर बहता हुआ। इस सरोवर में प्रवेश किया। करेगा। सरोवर के उत्तरी तट पर “माता सीता की बावड़ी” स्थित है। वह इसी स्थान पर स्नान किया करती थीं। इस बावड़ी में प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा को हजारों की संख्या में निःसंतान स्त्रियां आकर संतान प्राप्ति की कामना से श्रद्धापूर्वक स्नान करती हैं।
रामतीर्थ में पूजा-स्थल इस प्रकार हैं। :
- सरोवर के तट पर स्वामी जगन्नाथ मंदिर
- जगन्नाथ मंदिर के निकट ही स्थित एक अन्य मंदिर श्रीलक्ष्मीनारायण मंदिर
- सरोवर के पश्चिमी भाग की ओर स्थित महर्षि वाल्मीकि मंदिर किवदंती है कि इस स्थान पर बैठकर महर्षि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ महाग्रंथ की रचना की थी। एवं लव-कुश को दैवी-विद्या प्रदान की थी। ।
- ‘माता सीता की बावड़ी’, सरोवर के उत्तरी तट पर स्थित है। इस स्थान पर माता सीता स्नान करतीं, अपने तथा अपने दोनों पुत्रों के वस्त्र धोया करती थीं।
- बावड़ी के पश्चिम की ओर समीप ही माता का मंदिर है।जहां माता सीता अपने वस्त्र बदला करती थीं।
इस मेले में श्रद्धालु दूर-दूर से आकर एकत्रित होते हैं।जिनमें हिन्दू-सिख भारी संख्या में होते हैं। महर्षि वाल्मीकि के अनुयायी विशेष श्रद्धा-भाव प्रकट करने आते हैं। श्रद्धालुओं का मुख्य कार्य कथा।-कीर्तन श्रवण करना, सरोवर में स्नान करना, प्रार्थना करना, सरोवर में दीपदान करना तथा निर्धनों को दान देना होता है। दूर-दूर से महान् जटाधारी साधु-संत तथा महात्मा पुरुष यहां आकर प्रभु- भक्ति में जुड़ते हैं। प्रत्येक वर्ष मेले में पहुंचने वाले भक्ते की संख्या एक लाख से भी अधिक होती है। मेला पांच दिन तक चलता है तथा कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन अपेक्षाकृत सबसे अधिक भीड़ होती है।